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________________ 34] श्री जैनव्रत-कथासंग्रह ******************************** हैं। इसलिये यदि ये. आश्रवके द्वार (योग) रोक दिये जाय, तो संवर कर्माश्रय बन्द हो सकता है और संवर करनेका उत्तमोत्तम उपाय सामायिक प्रतिक्रमण आदि षडावश्यक हैं। इसलिये इन्हें नित्य प्रतिपालन करना चाहिये। पद्मासन या अर्द्धासनसे बैठकर या सीधे नीचेको हाथ जोड़कर खडे होकर मन, वचन, कायसे समस्त व्यापारोंको रोककर, चित्तको एकाग्र करके एक ज्ञेय (आत्मा) में स्थिर करना सो समभाव रूप १सामायिक हैं। अपने किये हुए दोषोंको स्मरण करके उन पर पश्चाताप करना और उनको मिथ्या करनेके लिये प्रयत्न करना सो २-प्रतिक्रमण है। आगेके लिये दोष न होने देनेके लिये यथा शक्ति नियम करना और (दोषोंको त्याग करना) सौं ३-प्रत्याख्यान है। तीर्थंकरादि अर्हन्त आदि पंच परमेष्ठियों तथा चौवीस तीर्थंकरोके गण किर्तन करना सो ४-स्तवन है। मन, वचन, काय शुद्ध करके चारों दिशाओंमें चार शिरोनति और प्रत्येक दिशामें तीन आवर्त ऐसे बारह आवर्त करके पूर्व या उत्तर दिशामें अष्टांग नमस्कार करना तथा एक तीर्थंकरकी स्तुति करना सों ५-वन्दना है। और किसी समय विशेषका प्रणाम करके उतने समय तक एकासनसे स्थित रहना तथा उतने समयके भीतर शरीरसे मोह छोड देना, उसपर आये हुए समस्त उपसर्ग व परीषहोंको समभावोंसे सहन करना सो ६-कार्योत्सर्ग है। इस प्रकार विचार कर इन छहों आवश्यकोंमें जो सावधान होकर प्रवर्तन करता है सो परम संवरका कारण आवश्यकापरिहाणि नामकी भावना है। (15) काल-दोषके अथवा उपदेशके अभावसे संसारी जीवोंके द्वारा सत्य धर्मपर अनेकों आक्षेप होनेके कारण उसका लोप सा हो जाता है। धर्मके लोप होनेसे जीव भी धर्म सहित होकर संसारमें नाना प्रकारके दु:खोंको प्राप्त होते हैं। इसलिये
SR No.032856
Book TitleJain 40 Vratha katha Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year2002
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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