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________________ श्री षोडशकारण व्रत कथा [33 ******************************** व गृहस्थ) जनोंकी भक्तिभावसे उनको दर्शन तथा चारित्रमें स्थिर रखने तथा दीन दुःखी जीवोंको धर्म मार्गमें लगाकर उनके दुःख दूर करनेके लिये उनकी सेवा तथा उपचार करनेको वैयावृत्यकरण भावना कहते हैं। (10) अरहन्त भगवानके द्वारा ही मोक्षमार्गका उपदेश मिलता है, क्योंकि वे प्रभु केवल कहते ही नहीं है किन्तु स्वयं मोक्षके सन्निकट पहुँच गये हैं, इसलिये उनके गुणोंमें अनुराग करना उनकी भक्ति पूर्वक पूजन, स्तवन तथा ध्यान करना सौ अर्हद्भक्ति भावना है। (11) बिना गुरुके सच्चे ज्ञानकी प्राप्ति नहीं होती, इसलिये सच्चे निरपेक्ष और हितैषी उपदेशक समस्त संघके नायक दीक्षा-शिक्षादि देकर निर्दोष धर्ममार्ग पर चलनेवाले आचार्य महाराजके गुणोंकी सराहना करना व उनमें अनुराग करना सो आचार्यभक्ति नाम भावना हैं। (12) अल्पश्रुत अर्थात् अपूर्ण आगमके जाननेवाले पुरुषोंके द्वारा सच्चे उपदेशकी प्राप्ति होना दुर्लभ क्या? असम्भव ही है। इसलिये समस्त द्वादशांगके पारगामी श्री उपाध्याय महाराज की भक्ति तथा उनके गुणोंमें अनुराग करना सो बहुश्रुतभक्ति नाम भावना हैं। (13) सदा अर्हन्त भगवानके मुखकमलसे प्रगटित मिथ्यात्व के नाश करने तथा सब जीवों हितकारी, वस्तु स्वरूपको बतानेवाला श्री जैन शास्त्रोंका पठनपाठनादि अभ्यास करना, सो प्रवचनभक्ति नाम भावना है। (14) मन, वचन, कायकी शुभाशुभ क्रियाओंको योग कहते हैं। इन ही योगोंके द्वारा शुभाशुभ कर्मोका आश्रव होता
SR No.032856
Book TitleJain 40 Vratha katha Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year2002
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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