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________________ सबहादान ही विहार करता .. 22] श्री जैनव्रत-कथासंग्रह * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * ओर देखनेको भी जी न चाहे इत्यादि, ऐसे घृणित शरीरमें क्रीडा करना क्या है? मानों विष्टा (मल) के क्रीडायत उसमें अपने आपको फंसाकर चर्तुगतिके दु:खोंमें डालता है। इस प्रकार यह सुभट कामके दुजय किलेको तोडकर अपने अनंत सुखमई आत्मामें ही विहार करता है। ऐसे महापुरुषोंका आदर सब जगह होता है और तब कोई भी कार्य संसारमें ऐसा नहीं रह जाता है कि जिसे वह अखण्ड ब्रह्मचारी न कर सके। तात्यर्प वह सब कुछ करनेको समर्थ होता है। इस प्रकार इन दश धर्मोका संक्षिप्त स्वरूप कहा सो तुमको निरन्तर इन धर्मोको अपनी शक्ति अनुसार धारण करना चाहिए। अब इस दशलक्षण व्रतकी विधि कहते हैं - ___भादो, माघ और चैत्र मासके शुक्ल पक्षमें पंचमीसे चतुर्दशी तक 10 दिन पर्यंत व्रत किया जाता है। दशों दिन त्रिकाल सामायिक, प्रतिक्रमण, वन्दना, पूजन, अभिषेक, स्तवन, स्वाध्याय तथा धर्मचर्चा आदि कर और क्रमसे पंचमीको ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमल समुद्गताय उत्तमक्षमाधर्माङ्गाय नमः। इस मंत्रका 108 बार एक एक समय इस प्रकार दिनमें 324 बार तीन काल सामायिकके समय जाप्य करे और इस उत्तम क्षमा गुणकी प्राप्तिके लिये भावना भावे तथा उसके स्वरूप वारंवार चिन्तवन करे। इसी प्रकार छठमीको ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तममार्दवधर्माङ्गाय नमः। का जाप कर भावना भावे। फिर सप्तमीको ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तमआर्जवधर्माङ्गाय नमः, अष्टमीको ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तमसत्यधर्माङ्गाय नमः, नवमीको ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तमशौचधर्माङ्गाय नमः, दशमीको ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तमसंयमधर्माङ्गाय नमः, एकादशीको
SR No.032856
Book TitleJain 40 Vratha katha Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year2002
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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