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________________ श्री दशलक्षण व्रत कथा [23 / ******************************** ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तमतपधर्माङ्गाय नमः, द्वादशको ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तम त्यागधर्माङ्गाय नमः, त्रयोदशीको ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तम आकिंचन्यधर्माङ्गाय नमः, चतुर्दशीको ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तम ब्रह्मचर्यधर्माङ्गाय नमः, इत्यादि मंत्रोंका जाप करके भावना भावे। समस्त दिन स्वाध्याय पूजादि धर्मकार्योमें बिताये, रात्रिको जागरण भजन करे, सब प्रकारके रागद्वेष व क्रोधादि कषाय तथा इन्द्रिय विषयोंको बढानेवाली विकथाओंका तथा व्यापारादि समस्त प्रकारके आरंभोंका सर्वथा त्याग करें। दसों दिन यथाशक्ति प्रोषध (उपवास), बेला, तेला आदि करे अथवा ऐसी शक्ति न हो तो एकाशना, उनोदर तथा रस त्याग करके करे, परंतु कामोत्तेजक, सचिक्कण, मिष्टगरिष्ठ (भारी) और स्वादिष्ट भोजनोंका त्याग कर, तथा अपना शरीर स्वच्छ खादीके कपडोंसे ही ढके / बढिया वस्त्रालंकार न धारण करे, और रेशम, ऊन तथा फेन्सी परदेशी व मिलोंके बने वस्त्र तो छुये भी नहीं, क्योंकि वे अनंत जीवोंके घातसे बनते है और कामादिक विकारोंको बढानेवाले होते हैं। इस कारण यह व्रत दश वर्ष तक पालन करनेके पश्चात् उत्साह सहित उद्यापन करे। अर्थात छत्र, चमर आदि मंगल द्रव्य, जपमाला, कलश, वस्त्रादि धर्मोपकरण प्रत्येक दश दश श्री मंदिरजीमें पधराना चाहिये, तथा पूजा, विधानादि महोत्सव करना चाहिये। दुखित भुखितोंका भोजनादि दान देना चाहिये। ____ यांचनालय, विद्यालय, छात्रालय, औषधालय, अनाथालय, पुस्तकालय तथा दीन प्राणीरक्षक संस्थाए आदि स्थापित करना चाहिये। इस प्रकार द्रव्य खर्च करने में असमर्थ हो तो शक्ति
SR No.032856
Book TitleJain 40 Vratha katha Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year2002
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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