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________________ नक्षण व्रत कथा ******************************** _____ श्री दशलक्षण व्रत कथा [21 / आपको धन्य व स्वसम्पतिको सफल हुई समझता हैं। यह कदापि स्वप्नमें भी अपनी ख्याति व यश नहीं चाहता और न दान देकर उसे स्मरण रखता अथवा न कभी किसी पर प्रगट ही करता है। वास्तवमें दान देकर भूल जाना ही दानीका स्वभाव होता है। इससे यह पुरुष सदा प्रसन्नचित रहता है। और मृत्युका समय उपस्थित होनेपर भी निराकुल रहता है। इसका चित्त धनादिमें फंसकर आर्त रौद्ररूप कभी नहीं होता और उसका आत्मा सद्गतिको प्राप्त होता है। (9) आकिंचन्य-बाह्य आभ्यंतर समस्त प्रकारके परिग्रहोंसे ममत्व भावोंको छोड देनेवाला पुरुष सदैव निर्भय रहता है, उसे न कुछ सम्हालना और न रक्षा करनी पड़ती है। यहां तक कि वह अपने शरीर तकसे निस्पृह रहता है, तब ऐसे महापुरुषको कौन पदार्थ आकुलित कर सकता है, क्योंकि वह अपने आत्माके सिवाय समस्त परभावों वा विभावोंको हेय अर्थात् त्याज्य समझता हैं। इसीसे कुछ भी ममत्व शेष नहीं रह जाता और समय समय असंख्यात व अनन्तगुणी कर्मोकी निर्जरा होती रहती है, इसीसे यह सुखी रहता है। (10) ब्रह्मचर्यधारी महाबलवान योद्धा सदैव उक्त नव व्रतोंको धारण करता हुआ, निरंतर अपने आत्मामें ही रमण करता है वह बाह्य स्त्री आदिसे विरक्त रहता है उसकी दृष्टिमें सब जीव संसारमें एक समान प्रतीत होते हैं और स्त्री पुरुष, व नपुसंकादिका भेद कर्मकी उपाधि जानता है। यह सोचता है कि यह देह, हाड, मांस, मल, मूत्र, रुधीर, पीव आदि रागी जीवोंको सुहावनासा लगता है। यदि वह चामकी चादर हटा दी जाय अथवा वृद्धावस्था आ जाय तो फिर इसकी
SR No.032856
Book TitleJain 40 Vratha katha Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year2002
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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