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________________ 20] श्री जैनव्रत-कथासंग्रह ******************************** इसको तृष्णा न होनेके कारण सदा आनंदमें रहता है, और इसीलिये कभी किसीसे ठगाया भी नहीं जाता हैं। (6) संयमी पुरुष भी उक्त पांचों व्रतोंको पालता हुआ अपनी इन्द्रियोंको उनके विषयोंसे रोकता हैं। ऐसी अवस्थामें इसे कोई पदार्थ इष्ट व अनिष्ट प्रतीत नहीं होते हैं। क्योंकि विषयानुरागताके ही कारण अपने ग्रहण योग्य पदार्थ इष्ट और आरोचक व ग्रहण न करने योग्य अनिष्ट माने जाते हैं, सो इष्टानिष्ट कल्पना न रहनेके कारण उनमें हेयोपादेय कल्पना भी नहीं रहती है, तब समभाव होता हैं। इसीसे यह समरसी आनंदको प्राप्त करता हैं। (7) तपस्वी पुरुष इन्द्रियोंको वश करता हुआ भी मनको पूर्ण रीतिसे वश करता है और उसे यत्र तत्र दौडनेसे रोकता हैं। किसी प्रकारकी इच्छा उत्पन्न नहीं होने देता है। जब इच्छा ही नही रहती तो आकुलता किस. बातकी? यह अपने उपर आनेवाले सब प्रकारके उपसर्गोको धीरता पूर्वक सहन करने में उद्यमी व समर्थ होता है। वास्तवमें ऐसा कोई भी सुरनर वा पशु संसारमें नहीं जन्मा है, जो इस परम तपस्वीको उसके ध्यानसे किंचित्मात्र भी डिगा सके। इसलिये ही इस महापुरुषके एकाग्रचिंतानिरोध रूप धर्म व शुक्ल ध्यान होता हैं जिससे यह अनादिसे लगे हुये कठिन कर्मोका अल्प समयमें नाश करके सच्चे सुखोंका अनुभव करती है। (8) त्यागी पुरुषके उक्त सातों व्रत तो होते ही है किन्तु उस पुरुषका आत्मा बहुत उदार हो जाता है। यह अपने आत्मासे रागद्वेषादि भावोंको दूर करने तथा स्वपर उपकारके निमित्त आहारादि चारों दान देता हैं, और दान देकर अपने
SR No.032856
Book TitleJain 40 Vratha katha Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year2002
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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