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॥ औद्देशिकदोषनिरूपणम् ॥ छउमत्थोहुद्देसं कहं वियाणाइ चोइए भणइ।
उवउत्तो गुरु एवं गिहत्थसद्दादिचेट्टाए॥२४४॥ छउमत्थो० गाहा। व्याख्या- छद्मस्थः सत्त्व ओघौद्देशिकं उक्तलक्षणं कथं विजानाति ? चोदिते = एवमुक्ते सति भणति गुरुरिति सम्बन्धः, उवउत्तो संतो सुत्तोदितेण विहिणा एवं वक्ष्यमाणेन न्यायेन गिहत्थसौदिचेट्टाए त्ति गाथार्थः॥२४४॥ सा पुनरियं चेष्टा
दिण्णाउ ताउ पंच वि रेहाउ करेइ देइ व गणेती।
देह इतो मा य इतो अवणेह य एत्तिया भिक्खा ॥२४५॥ दिण्णाउ गाधा। व्याख्या- साधुम्मि गोयरपविढे जणणीए भणिता- “देहि भिक्खं"ति, "दिण्णाउ ताउ पंच वि भिक्खाओ"त्ति, अहवा रीहाउ करेइ पाहुडियं वियावेती, देति व गणेती "चउत्थी वट्टई"त्ति, 'देह इओ मा य इतो' वि (?त्ति) जोसणं, दातुकामं भणति- “देह इतो कूरपेहडातो, मा य इओ' वि (?त्ति) जोसणाओ, ‘अवणेह य एत्तिया भिक्ख'त्ति भिक्खाए दिण्णाए अदिण्णाए वा भणति- “अवणेह अण्णाओ वि चत्तार", ततो एसणोवउत्तो पुच्छति- “किमिदं ?"ति, ताहे सा साहति–“जहा एयाओ भिक्खायराणं पंच दिजं"ति। (भिक्खायराणं पंच दिजंति) अहवा रद्ध उक्कड्डिजति ततो सेसं कप्पति। एवं जाणइ त्ति गाथार्थः॥२४५॥ अमुमेवार्थं प्रपञ्चतः प्रतिपादयन्नाह
सद्दाइएसु साहू मुच्छं ण करेज गोयरगओ उ।
एसणजुत्तो होज्जा गोणीवच्छो गवत्तेव्व॥२४६॥ सदादिएसु गाहा। व्याख्या- सद्दाइएसु विसएसु साहू मुच्छं ण करेज गोयरगतो उ, 'तु'शब्दात् शेषकालेऽपि विशेषतस्तत्र, अत एवाह- एसणजुत्तो होजा क इव कस्मिन् ? इति दृष्टान्तमाहगोणीवच्छो गवत्तेव त्ति गाथार्थः॥२४६॥ दृष्टान्तव्याचिख्यासयैव आह
ऊसव मंडणवग्गा ण पाणियं वच्छए ण वा चारी।
वणियागम अवरण्हे वच्छगरडणं खरंटणया॥२४७॥ ऊसव गाहा। व्याख्या- एगस्स सेट्ठिस्स घरे वच्छगो पिओ य तज्जियाओ य णेण वधुगाओ- “एयं पडियग्गेजसु"त्ति। ताओ पडियग्गंति अण्णया य ऊसवो जातो त्ति। ततो ऊसवे मंडणवग्गाओ ताओ; अतो ण पाणियं वच्छते ण वा चारी दिण्णा। ‘वणियागम अवरण्हे'त्ति अवरण्हे वणियगो आगतो। 'वच्छगरडणं'त्ति ततो वच्छएण रडियं। 'खरंटणय' त्ति णाऊण अंबाडणा वधूणं ति गाथार्थः॥२४७॥
पंचविहविसयसोक्खक्खणीवधूसमहियं गिहं तं तु।
न गणेइ गोणिवच्छो मुच्छिय गढिओ गवत्तम्मि॥२४८॥ (टि०) १. ०त्थो उद्दे० ख०॥ २. ०हाए चेट्ठा० जि१॥ ३. मिओ जे२॥ ४. लिहाउ ला०॥ ५. ०सणाजु० ॥२॥ (वि०टि०).. गवत्तेव = गोभक्त इव इत्यर्थः।।