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रस
वरंगचरिउ
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रस की निष्पत्ति भावों के विविध स्वरूपों के सम्मिश्रण से होती है। अपभ्रंश प्रबंध काव्यों में रसयोजना परम्परागत है। शास्त्रीय दृष्टि से शृंगार, वीर और शांत रस में से एक ही अंगीरस हो सकता है
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देवेन्द्र कुमार शास्त्री के अनुसार अपभ्रंश काव्यों का समापन शान्त रस में होता है। इसलिए वही रस मुख्य है एवं यदि समापन वाली कसौटी को हटा दिया जाए तो वर्णन की प्रचुरता और व्यापक दृष्टि से शृंगार और वीररसों का स्थान महत्त्वपूर्ण हो जाता है। श्रृंगार के दोनों रूपों ( संयोग और वियोग ) का चित्रण अपभ्रंश काव्य में विशदता से उपलब्ध होता है।
उक्त परम्परा में 'वरंगचरिउ' चरितकाव्य में भी मुख्य शान्त रस प्रधान है। साथ ही गौणरूप श्रृंगार, वीर, रौद्र और भयानक रसों का निरूपण प्राप्त होता है, जो इस प्रकार है
श्रृंगार रस - - शृंगार रस के लिए आचार्यों ने आदि रस और रसराज की संज्ञा प्रदान की है। कामदेव के उद्भेद (अंकुरित होने) को श्रृंग कहते हैं, उसकी उत्पत्ति का कारण अधिकांश उत्तम प्रकृति से युक्त रस शृंगार कहलाता है।' मुख्यतः इसके दो भेद हैं 2 - संयोग शृंगार और वियोग शृंगार। जहां अनुराग तो अति उत्कट है, परन्तु प्रिय समागम नहीं होता, उसे वियोग श्रृंगार कहते हैं एवं एक-दूसरे से प्रेम से पगे नायक और नायिका जहां परस्पर दर्शन, स्पर्शन आदि करते हैं, वह संयोग शृंगार कहलाता है ।
वरंगचरिउ एक धार्मिक ग्रन्थ है, फिर भी इसमें शृंगार रस के दोनों पक्षों का सुन्दर चित्रण हुआ है। वियोग श्रृंगार रस का चित्रण मनोरमा और कुमार-वरांग के माध्यम से प्राप्त होता है । मनोरमा प्रियमिलन के विरह से परितप्त हो जाती है, यथा
इस प्रकार श्रेष्ठ नगर में नववधुओं के साथ प्रमोद करते हुए निवास करता है। एक दिन मातुल (मामा) की पुत्री, जिसका नाम कुमारी मनोरमा है, वरांग को रतिरस में आसक्त देखती है और मन में चिंतन करती है कि इसके साथ संसर्ग / संभोग करना चाहिए। उसका शरीर व्याकुल हो जाता है । स्त्री के चित्त ( मन ) को कामदेव का बाण पीड़ित करता है। श्वासोच्छ्वास अति तीव्रवेग से प्रवाहित होते हैं, शीतल जल का लेपन भी ताप उत्पन्न करता है, शरीर की तड़फड़ाहट (तड़पन ) ऐसे होती है, जैसे मछली का जल के सूख जाने पर होती है ।
1. शृंगं हि मन्यथोद्भेदस्तदागमन हेतुकः ।
उत्तम प्रकृति प्रायो रसः शृंगार इष्यते ।। (साहित्य दर्पण 3 / 183)
2. वही, 3 / 186, 187, 210 3. वरंगचरिउ, संधि - 4, कडवक - 2