________________
वरंगचरिउ
क्या मेरे केश भौरों के समूह के समान है। किसी भी प्रकार से मेरे प्राणों की रक्षा नहीं हो सकती है। क्या कुंडल है, क्या मेरी बिन्दी की शोभा है, वरांग के बिना मुझे सभी लोहा जैसे भासित होते हैं। हाय-हाय क्या मेरा मुख-मंडल है, क्या मेरे कपोल है, मुक्तामणि का हार शीघ्रता घूमता है, वह भी मुझे सर्प के जैसा भासित होता है। इन उन्नत पयोधर (स्तन) का क्या करना चाहिए, चोली का बंधन ही मानो बंधन है ।
70
क्या करधनी (मेखला) और श्रेष्ठ माला है, क्या मेरे बहुत से वस्त्र हैं एवं क्या यौवन है, क्या श्रेष्ठ नूपुर शब्द करते हैं, मानो काम सेवक मारो मारो कहता है। इस प्रकार सभी आभूषण विष तुल्य भासित होते हैं और कोई भी कार्य नहीं सुहाता है ।
इसी प्रकार सम्भोग श्रृंगार का भी एक उदाहरण प्राप्त होता है। कुमार वरांग के विवाह के पश्चात् प्रिय मिलन होता है, ' यथा
कुमार भी रतिप्रमोद भोगते हुए वहां पर हर्षित हुआ । प्रवाल मूंगा की तरह सरस अधरों का चुंबन करता है, अपनी भुजाओं में प्रिय पत्नी को आलिंगित करता है । उन्नत एवं झुके हुए स्तनों को हाथों से सहलाता है । रमणी (स्त्री) के साथ शैय्या ( पलंग) पर क्रीड़ा करता है । अपनी स्त्री में अनुरक्त होता है, परन्तु परस्त्री के साथ मन में भी रत नहीं होता है एवं परनारी के साथ बात भी नहीं करता है। अपनी स्त्री के लिए पान (ताम्बूल) देता है, किन्तु पर- स्त्री के साथ स्नेह अर्पित नहीं करता है।
अपनी सीमा में रहकर भ्राताओं की स्त्रियों को आदर देता है और इस प्रकार परस्त्री के प्रति भाव रखता है ।
करुण-रस-करुण-रस कोमलता का प्रतीक है। इसकी अभिव्यक्ति इष्ट नाश और अनिष्ट प्राप्ति से बतायी गयी है। अर्थात् इष्ट वस्तु की हानि, अनिष्ट वस्तु का लाभ, प्रेम-पात्र का चिर-वियोग, अर्थहानि आदि से जहां शोकभाव की परिपुष्टि होती है, वहां करुण रस होता है।±
वरंगचरिउ में इसके उदाहरण राजधर्मसेन और रानी गुणदेवी के पुत्र विरह एवं बंधुओं के अपने पति - विरह के माध्यम से बताया गया है ।
वीर-रस-जिस विषय में जहां उत्साह का संचार हो अर्थात् उत्साह भाव का परिपोषण हो, वहां वीर रस होता है।* वरंगचरिउ में युद्ध प्रसंग में 'वीर रस' की पुष्टि होती है, यथा
1. वरांगचरिउ, संधि-1, कडवक-8 2. साहित्य दर्पण, 3 / 222 3. वरांगचरिउ, तृतीय संधि, कडवक - 2, 3 4. काव्यदर्पण, पृ. 183 5. वरांगचरिउ, 2/9-10, 3/16-17