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वरंगचरिउ स्वयंभू का विश्वास है कि अलंकार रहित सुकथा वैसे ही व्यर्थ है, जैसे लांछन सहित कन्या। कन्या लांछन रहित होनी चाहिए, भले ही वह अलंकार न पहने हो। ऐसे ही कथा भले ही लांछन रहित अच्छी हो, किंतु उसका अलंकृत होना जरूरी है। उसका सबसे बड़ा लांछन, अलंकार विहीन होना है। उक्त कथनों से यह स्पष्ट है कि काव्य में अलंकार का रहना आवश्यक है।
वरंगचरिउ एक चरितकाव्य है। अतः इसमें भी अलंकारों की प्राप्ति होती है। कवि ने उत्प्रेक्षा और उपमा का अत्यधिक प्रयोग किया है, साथ ही यमक एवं अनुप्रास अलंकार के माध्यम से भी काव्य रचना की है।
उपमा अलंकार-साहित्य दर्पण के अनुसार एक वाक्य में दो पदार्थों के वैधर्म्य रहित, वाच्यसादृश को उपमा कहते हैं, यथा
1. पारद्धिउ चउगइ भमइ केम, चल पहरिय झिंदु व पुहइ जेम। (1/13) 2. सव्वह वल्लहु णिय जीवयव्वु, सो णउ घाइज्जइ करिवि गब्बु । (1/13) 3. छणइंदु व सरिसउ वयणु भाइ, बालक्क तेयविहि दिण्ण णाइ। (2/15) 4. हा हा पइं विणु खडरसभोयणु, विसरिव भासइ जीविय मोयणु। (3/2) 5. फेणु व णिस्सारउ मणुय जम्मु, इय जाणिवि किज्जइ णिवइ धम्म। (3/8) 6. तणु धणु जोवणु णिय जीवयव्वु, सुरधणुमिव भंगुर लोयसव्वु ।
लायण्णु वण्णु पुणु सुयण संगु, जलबुब्ब व सण्णिहु हवइ भंगु। (4/18) 7. धरवइ रज्जु देवी णियपुत्रहो, जुण्ण तिणुव्व रज्जु परिचत्तहो। (4/21) उक्त रेखांकित शब्दों से वाच्य-सादृश्यता प्रदर्शित होती है।
उत्प्रेक्षा अलंकार-उपमेय में उपमान की संभावना को उत्प्रेक्षा कहते हैं, यथा-वरंगचरिउ में उत्प्रेक्षा अलंकार का व्यापक वर्णन किया गया है, यथा
1. धवलुज्जणु णं उडवइ पयाउ, णं धरिउ पयोणिहि वेलभाउ। ___णं णहयलि लग्गउ सुरविभाणु उत्तंगु विउल णं गिरिपमाणु। (1/4) 2. णं सुरपुरि महियलि इत्थु आय, जहि णिच्चु वि हुय दुंदुहि णिणाय । (1/4) 3. णं मयरद्धउ जगि पयडु जाउ, णं पुंजी कउ दय धम्मभाउ। (1/4) 4. णं दीणाणाहहं कप्परुक्खु, अरिकामिणी हियवइ देह दुक्खु। (1/4) 5. तुह आएसु होइ ता आणामि, णं तो वयणहि तित्थु समणामि । (1/9) 6. करिवि पसंसण गय णियभवणहो, णं विहि णिम्मिय मग्गण पयणहो। (1/18) 7. अइ णिविड पयोहर कढिणतुंग, णं मणसिय कीडण गिरि उयंग। (2/2) . 8. इय वयण सुणिवि कोहेण जलिउ, णं उग्घय सित्तिउ जलणु जलिउ। (2/9)