SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 55
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१४/५३ ऐसा लगा कि यह राजकन्या मेरे लिए ही है.... वह मेरे ऊपर प्रसन्न हो रही है, मैं ही इससे विवाह करूँगा; इसप्रकार दोनों भाई इसी राजकन्या के ऊपर ही नजर रखकर उसे राग से निहारने लगे - यह देखकर दोनों को एक-दूसरे पर द्वेष आया कि यदि मेरा भाई इस कन्या के ऊपर नजर रखेगा तो मैं उसे मारकर इस राजकन्या से विवाह करूँगा। ऐसा मन ही मन में वे एक-दूसरे को मारकर भी उस राजकन्या के साथ विवाह करने की सोच रहे थे। दोनों का चित्त एक ही राजकुमारी में एकदम आसक्त था, इस कारण वे एक-दूसरे से कहने लगे - “इस राजकुमारी के साथ मैं विवाह करूँगा, तुम नहीं।" इसप्रकार मैं-मैं.... तू-तू करते-करते दोनों भाई हाथी के ऊपर बैठे-बैठे वाद-विवाद करने लगे। कन्या के मोहवश दोनों भाई एक-दूसरे के प्रति प्रेम भूल गये और द्वेषपूर्ण वर्ताव करने लगे। कन्या की खातिर एक-दूसरे से लड़ने के लिए तैयार हो गये। अरे विषयासक्ति ! भाई-भाई के स्नेह को भी तोड़ देती है। अरे चेतो ! चार-चार भव से परमस्नेह रखनेवाले दोनों भाई इस समय विषयासक्तिवश एक-दूसरे को मारने के लिए भी तैयार हो गये हैं। हृदय परिवर्तन - ___इतने में कुछ शब्द उनके कान में पड़ते ही दोनों भाई चौंक गये..., जैसे बिजली ही उनके ऊपर पड़ गई हो, अरे रे .... वे दोनों स्तब्ध हो कैसे गये ?.... क्या शब्द थे वे ? दोनों राजकुमारों को लड़ाई करने की तैयारी करते देखा तथा दोनों की नजर भी राजकुमारी की ओर लगी है - यह देखकर, उनके साथ चल रहे बुद्धिमान मंत्री परिस्थिति को समझ गये कि ये दोनों राजकुमारी के लिए लड़ रहे हैं.... उन्होंने कहा -- . “देखो, राजकुमारो ! सामने राजमहल के झरोखे में 'तुम्हारी
SR No.032263
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy