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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१४/५४ बहिन' खड़ी है, बहुत वर्षों बाद तुम्हें पहली बार देखकर अत्यन्त प्रसन्न हो रही है कि अहा ! कितने अच्छे लग रहे हैं मेरे भाई ! अत: टकटकी. लगाकर तुम्हें निहार रही है। तुम विद्याभ्यास करने गये थे, उसके बाद इसका जन्म हुआ था, यह तुम्हारी बहिन तुम्हें पहली बार देखकर कितनी खुश है ! तुम भी उसे पहली बार देख रहे हो....।"
“अरे ! इस झरोखे में खड़ी-खड़ी जो हमारे सामने हँस रही है, वह राजकुमारी कोई और नहीं, हमारी ही सगी बहिन है।"
– ऐसा जानकर दोनों भाइयों के मन में जबरदस्त धक्का लगा। लज्जा से वे वहीं ठहर गये। वे सोचने लगे -
___ "अरे रे ! यह तो हमारी छोटी बहिन है ! हमने इसे कभी देखा नहीं, जिससे समझ नहीं सके, अज्ञानता के कारण हम अपनी बहिन के ऊपर ही विकार से मोहित हुए और एक-दूसरे को मारने का विचार करने लगे। अरे, विषयांध होकर हम भाई-भाई के स्नेह को ही भूल गये; हाय रे ! हमें यह दुष्ट विचार क्यों आया ?
अरे रे ! ऐसे संसार में क्या रहना ! जहाँ एक भव की स्त्री दूसरे भव में माता या बहिन हो, एक भव की बहिन दूसरे भव में स्त्री आदि हो । अब इस संसार से विराम लेना चाहिये। अनेक दुःखों से भरा हुआ यह संसार, जिसमें दुष्ट मोह, जीव को अनेक प्रकार से नाच नचाता है। हमें धिक्कार है कि हमने मोह के वश होकर अपनी बहिन के ऊपर विकार किया। अरे ! अब, माता-पिता को हम क्या मुँह दिखायेंगे।"
- ऐसा विचार करके उन्हें राजमहल जाने में अत्यन्त शर्म महसूस हुई। इसप्रकार संसार को असार समझकर दोनों भाई अत्यन्त विरक्त हुए
और वहाँ से लौटकर विरक्त होकर मुनि दीक्षा लेने के लिए तैयार हुए, उसी समय पुत्रवियोग से व्याकुल माता ने पुत्रों को रोकने हेतु बहुत प्रयत्न किया। उनके पिता दोनों पुत्रों के विरह में आहार को त्याग करके, प्राण छोड़कर भवनवासी देव में गरुडेन्द्र हुए।