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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१४/४७ सुख साधने के लिए जा रहे हैं। पहले भी तीर्थंकर भगवंतों ने राज्यभोगों को छोड़कर उस मोक्ष-सुख को साधा है। श्री नेमिनाथ तीर्थंकर ने भी आत्मा में से ही अतीन्द्रिय-सुख को साधा है। अतीन्द्रिय-सुख ही सच्चा सुख है और वह सुख आत्मा में से ही आता है, विषयों में से नहीं।" बुद्धिमान धर्मात्मा के पास से ऐसी सरस बात सुनकर वह मूर्ख फिर पछताता हुआ कहने लगा - “अरे, मैंने वरांगकुमार को समझे बिना ही उनकी निंदा की, मुझे धिक्कार है ! अच्छा हुआ कि तुमने सच्ची बात समझा दी। अब मैं भी उस अतीन्द्रिय-सुख को साधने के लिए राजा वरांग के साथ उनके मार्ग पर जाऊँगा" ऐसा कहकर वह भी वैराग्यपूर्वक वरांगकुमार के साथ चला गया। इसप्रकार वरांग कुमार के निमित्त से अनेक भ्रमणा में पड़े हुए जीव भी चैतन्य सुख की श्रद्धा करके विषयों से विरक्त हुये और वरांग राजा के साथ वन में पहुँचे। राजा वरांग के राग-द्वेष का बंधन तो टूट ही गया था। सुयोग से ठीक इसी समय पास में ही मणिकान्त पर्वत पर वरदत्त केवली भगवन्त विराजमान थे। पहले वे श्री नेमिनाथ तीर्थंकर भगवान के मुख्य गणधर थे, फिर वे सर्वज्ञ अरिहंत हुए और देश-देश में विचरण करके सभी भव्यजीवों को धर्मोपदेश देने लगे। वैराग्य के धनी ऐसे परमात्मा के दर्शन होने पर वैरागी वरांग के हर्ष का पार न रहा। भक्तिपूर्वक दर्शन-स्तुति करके उन्होंने कहा - “हे देव ! इस संसार से थके हुए जीवों को आप ही विश्राम के स्थान हो । हे प्रभो! धर्म ही आपका शरीर है, केवलज्ञान और केवलदर्शन से आप परिपूर्ण हो, सुख के भंडार हो, आपकी शांतमुद्रा के दर्शन से मेरा मोह शांत हो गया है और अब मैं आपकी चरण-छाया में दिगम्बर जिनदीक्षा लेकर मुनि होना चाहता हूँ। इस संसार भ्रमण से मैं दुखी हो गया
SR No.032263
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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