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________________ जैन धर्म की कहानियाँ भाग - १४/४६ “धन्य माता " - ऐसा कहकर मस्तक झुकाकर वरांगकुमार वहाँ से विदा हुए। वैरागी वरांग को वन में जाते देखकर लोग आश्चर्यचकित हो अनेक प्रकार की बातें करने लगे । एक मूर्ख मनुष्य कहने लगा- "यह वरांग राजा बालबुद्धि हैं। आश्चर्य है कि ऐसे महान राज- सुखों को छोड़कर स्वर्ग-मोक्ष के सुखों को खोजने वन में जा रहे हैं। स्वर्ग-मोक्ष के सुखों को कौन जानता है ? जिसके लिए यह प्रत्यक्ष मिले इन्द्रिय-सुखों को छोड़कर वन में जा रहे हैं। जिसे देखा नहीं - ऐसे सुख की खातिर मिले हुए सुखों को भी छोड़ दिया। ये दोनों को ही खो देंगे। मोक्षसुख के नाम पर इस भोले जीव को किसी ने भड़का दिया है । जहाँ ये सभी इन्द्रिय सुख उपलब्ध हैं तो फिर दूसरे कौन से सुख को खोजने के लिए ये वन में जा रहे हैं। " तभी एक बुद्धिमान सज्जन ने उसे जवाब देते हुए कहा "अरे मूढ़ ! ये वरांगकुमार मूर्ख नहीं, मूर्ख तो तू है । तुझे स्वर्गमोक्षसुख की खबर नहीं है, इसलिए तू विषयसुखों में आसक्त है, इसी कारण तू इसप्रकार बकवास कर रहा है। विषयों से पार तुझे चैतन्यसुख की खबर नहीं है । ये वरांगकुमार तो इन्द्रिय विषयों से पार ऐसे अतीन्द्रियसुख का अनुभव करते हैं । इन्होंने मोक्ष - सुख का स्वाद साक्षात् चखा है, उसी सुख की पूर्णता को साधने के लिए इन इन्द्रिय-सुखों को छोड़कर वन में जा रहे हैं। इन्द्रिय-सुख वह वास्तविक सुख नहीं, अपितु दुःख ही है । सच्चा सुख धर्मसाधना के द्वारा ही प्राप्त होता है । इस विश्वविख्यात सिद्धान्त को क्या तुम नहीं जानते ? तो सुनो - अत्यन्त, आत्मोत्पन्न, विषयातीत, अनूप, अनंत का । विच्छेदहीन है सुख अहो ! शुद्धोपयोग प्रसिद्ध का ॥ — ये वरांगकुमार इन्द्रिय-सुख को छोड़कर इन्द्र पद के लिए नहीं जा रहे हैं। वे तो उन्हें प्राप्त ही हैं, परन्तु वे तो उससे भी पार अतीन्द्रिय मोक्ष -
SR No.032263
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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