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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१४/४५ “बेटा ! ऐसी भरी जवानी में विषय-भोगों को छोड़कर वन में रहना तो बहुत कठिन बात है, वृद्ध हो जाने पर भी हम अभी उन्हें छोड़ नहीं सकते और चारित्रदशा पालन नहीं कर सकते। तब तुम युवावस्था में ही विषयों को किस प्रकार जीत सकोगे?"
“पिताजी ! विषयों को छोड़ना कायरों के लिए कठिन हो सकता है, शूरवीरों के लिए नहीं। शूरवीर मुमुक्षु तो चैतन्य की एक झंकार (गूंज) मात्र से सर्व संसार के विषयों को छोड़ देते हैं और मोक्ष की साधना में लग जाते हैं।"
वरांग राजा की ऐसी सरस वैराग्य भीनी युक्तिपूर्ण बात सुनकर महाराज निरुत्तर हो गये और उनका चित्त भी वैराग्य धारण करने के लिए तत्पर होने लगा।
पिताजी ने कहा – “हे वत्स ! तुम्हारी बात परम सत्य है, तुम्हारा भाव वास्तव में दृढ़ और अत्यंत विशुद्ध है। किसी को धर्मकार्य में बाधा पहुँचाना - यह तो भव-भवान्तर को बिगाड़ने के समान है। मैंने पुत्र-स्नेह वश जो कुछ कहा, उसे तुम लक्ष्य में न लेकर मुनिदीक्षा अंगीकार करके आनंदपूर्वक मोक्ष के पथ में विचरण करो।"
वरांगकुमार बचपन से ही शांत, विषयों से विरक्त और अन्तर्मुख जीवन जीनेवाले थे। धर्म के प्रति उनका उत्साह प्रसिद्ध था। मंत्री, सेनापति और समस्त नगरजनों से उन्होंने नम्रता से क्षमायाचना पूर्वक विदाई ली।
अन्त में वे अपनी माता के पास विदा लेने गये। माता-पुत्र के धर्म-संस्कारों को समझती थी, अत: उन्होंने गद्गद् होकर कहा –
“बेटा ! मैं क्या बोलूँ ! तुम जिस उत्तम मार्ग में जा रहे हो, उसमें मैं क्या कह सकती हूँ ? बेटा ! तुम अपनी साधना में शीघ्र सफल होओ और सर्वज्ञ परमात्मा बनकर हमें दर्शन दो - यही अभिलाषा है।"