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जैनधर्म की कहानियाँ भाग - १४/४८
हूँ, इसलिए अब मुझे अपने देश मोक्षपुरी में ले चलो। आपका देश कितना सुन्दर है। जहाँ कभी मृत्यु नहीं होती, कभी जन्म नहीं होता, जहाँ मोह, मद, कर्म की रज भी नहीं है, मात्र शांति ही शांति है ! बस, अब मैं भी इसी देश में - सिद्धपुरी में आकर सदाकाल रहूँगा । "
इस प्रकार प्रार्थना करके उन आत्मज्ञ भव्यात्मा ने केवली प्रभु के चरणों में जिनदीक्षा अंगीकार की । वे वस्त्राभूषण एवं सर्वप्रकार का परिग्रह छोड़ मुनि होकर आत्मध्यान में लीन हो गये। इसी समय उन्हें शुद्धोपयोग सहित चारित्रदशा प्रकट हुई, क्षायिक सम्यक्त्व और मन:पर्ययज्ञान प्रकट हुआ । अब वे रत्नत्रय के सम्राट मोह का साम्राज्य छोड़कर मोक्ष के साम्राज्य को संभाल रहे थे। अब वे शत्रु - 1 -मित्र या जीवन-मरण में समभावी थे । आत्मसाधना में उनकी शूरवीरता खिल उठी।
राजा वरांग ने दीक्षा ली, उनके साथ रानियाँ भी दीक्षा लेकर आर्यिका बन गयी थीं। दूसरे कितने ही भव्यजीवों ने उनके साथ दीक्षा ली। जो दीक्षा नहीं ले सकते थे, उन्होंने श्रावक के व्रत तथा सम्यक्त्व को धारण किया ।
“अरे इन्होंने इतने महान वैभव छोड़े हैं, तब हमारे पास तो क्या वैभव है ? इस अल्प वैभव को हम क्यों नहीं छोड़ सकते ?”
ऐसा विचार करके साधारण स्थितिवाले अनेक जीवों ने राजा वरांग के साथ ही दीक्षा ले ली। सभी की आँखों में से वैराग्यरस झर रहा था। अपने कल्याण का ऐसा सुअवसर प्राप्त होने पर सभी का चित्त प्रसन्न हो रहा था