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दलिचंद सुखराजके लेखकाजवाब.
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जहां श्रावकों की आबादी है, - ऊनको मुनितरीके माननेवाले श्रावकबहुत है.
अगर मेरा बरताव मुनिधर्मसें विरुद्ध दिखाइदेताथा, -तो- तुमखुद- शहरधुलिये जब - मेने - संवत् (१९७१) की सालका चौमासा किया - मेरी व्याख्यानसभा में धर्मशास्त्रसुननेको क्यौंआतेथे ? क्या ! ऊसख्त में रैलमें नहीवेठताथा ? जब मेराआना शहरधुलिये के टेशनपरहुवाथा, - धुलिये के श्रावक श्राविका - मयवेंड-बाजा वगेरा जुलुसके पेशवाइकों मेरे सामने आयेथे खयालकरनेकी जगह हैकि - अगर धुलिये श्रावक मुजको - मुनितरीके- नहीमानते होते - तो - असा क्यों - करते ? और बडीआर्जु - मिन्नत करके मेरेकों चौमासा क्यों ठहराते ?
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३- फिर दलिचंद सुखराज अपनेलेखमें बयानकरते है कि - उत्त रदाताने सत्य से सो कोसदुररहकर उडाउ जवाब दिये है, प्रश्न एकढंगसे किये गये है, उत्तर दुसरे ढंग से दिये है. -
( जवाव . ) कौन कह सकता है उत्तर दुसरेढंगसेदिये है. जिससे सवाल कियेथे उसी ढंग से जवाबदिये है. मेरेदियेहुवे जवाब इन्साफसे - सोकोश दुरनही, बल्कि ! बहुत नजदीक है, बजरीये जैन और जैनशासन अखरके हजारां शरूशोने बांचेहोगे, -कइमहाशयोके अभि प्रायभी मेरेपास आयेहुवे मौजूद है,
४ - आगे दलिचंद सुखराज तेहरीरकरते है, उत्तरदाताने प्रश्न : के आसयकों छिपानेका भरपेट प्रयत्न कियाहै, उसकी समालो चना करना मुजे जरुरी मालुम हुवा,
( जवाब . ) चाहे जितनी समालोचना करते रहो, -में- उसपर प्रतिसमालोचना करने लिये मुस्तेजहुँ, सवालकर्त्ताके आशयकों-बोछिपावे जिसकेपास माकुलजवाब न हो, जिसकीमरजीहो व मरी