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जाहिर उदघोषणा.
अपना असत्यमत स्थापन करनेके लिये न्यायमार्गको छोडकर उद्धत्ताई से सत्यबातका निषेध करता है अन्यायमार्गको ग्रहणकरता है ऐसे प्राणी के लोकलज्जा पूजामान्यता गुरुपरंपरादि सब इसभवमें यहांही घरे रहते हैं और झूठेहठाग्रहसे कर्मबंधन होतेहैं उसके विपाक गोष्टामाहिल, त्रेराशिक वगैरह निन्हवोंकी तरह संसार में भोगने पड़ते हैं इसलिये हे जैनी नाम धारण करनेवाले भव्यजीवों झूठेहठको छोडो और सत्यबातको ग्रहणकरो उससे तुम्हारे आत्माका कल्याण हो.
अनादि मर्यादाका उल्लंघन.
देखो अनादि प्रवाह मूजब जिनाशानुसार अनेक गुणवाली सत्य बातके गंभीर आशयको गुरु गम्यतासे और विवेक बुद्धिसे समझे बिना अपनी अल्पमतिकी कल्पनासे कोई कार्य में यदि लाभ समझकरके भी किसी प्रकार से नयी बात शुरू करें तोभी तत्वदृष्टिसे वह हानि की हेतु होती है तथा अगाडी जाते बडे अनर्थ करनेवाली होती है. देखिये जिना - ज्ञानुसार अनादिकाल से सर्व जैन मुनियोंको हाथमें मुंहपत्ति रखकर बोलते समय मुंहकी यत्ना करके बोलनेकी प्रवृत्ति चली आती है तोभी अनुमान विक्रम सम्वत् १७०९ में प्रथमही 'लुकेमत' के 'लवजी' साधु ने अपनी कल्पनासे एकनई युक्ति निकाली कि खुलेमुंह बोलनसे हिंसाहोती है, वार वार उपयोग रहता नहीं इसलिये मुंहपत्ति मुंहपर बांध ले तो उससे दया पलेगी, कभी खुलेमुंह न बोलना पडेगा- ऐसा विचार कर ह मेशा मुंहपर मुंहपत्ति बांधनेकी नईरीति चलाई परन्तु तत्वदृष्टिसे दयाके नामसे चलाई हुई यह रीति दयाकी जगह ज्यादाहिंसा करनेवाली होगई और मिथ्यात्व फैलनेरूप बड़ा अनर्थ करनेवाली हुई.
देखो अब लवजीकी परंपरावाले इंढिये कहते हैं कि 'हमेशा मुंहपत्ति बांधनेवाले कहीं २ दूर दूर अनार्य देशमें चलेगये होंगे इसलिये लवजीका हमेशा मुंहपात बांधना नवीन मालूम पड़ा ढूंढियोंका यह कहना प्रत्यक्ष झूठहै क्योंकि - गुजरात, काठियावाड, कच्छ, मारवाड़, मालवा, मेवाड, पूर्व, पंजाब, मध्यप्रांत, दक्षिण वग़ैरह देशोंमें लाखों जैनी रहते थे उन देशोंमें हजारों साधु-साध्वी विचरते थे परन्तु किसी भी देश मे कोई भी जैन साधु हमेशा मुंहपत्ति बांधने वाला नहीं था और जैन समाज में बहुत से जैनी श्रावक लक्षाधिपति व क्रोडाधिपति व राज्य मान्य बड़े २ गृहस्थ मौजूद थे सो लाखों-करोडों रुपये दानादि धर्मकायमै खर्च