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________________ इन्द्रिय-जय ७१ वृद्धास्तृष्णाजलापूर्णैरालवालैः किलेन्द्रियैः । मुर्च्छामतुच्छां यच्छन्ति, विकारविषपादपाः ॥७॥२॥ अर्थ : लालसा रुपी जल से लबालब भरी इन्द्रिय रुपी क्यारियों से फले-फूले विषय-विकार रुपी विषवृक्ष, जीवात्मा को तीव्र मोह-मूर्च्छा देते हैं। विवेचन : इन्द्रियाँ खेत की क्यारियों जैसी हैं । उनमें लालसा और विषय - स्पृहा का जल लबालब भरा जाता है । साथ ही इन क्यारियों में बीजस्वरूप पड़े विषय-विकार पनपते रहते हैं और कालान्तर से वटवृक्ष का रूप धारण कर लेते हैं । विकार - विकल्प के इन विषवृक्षों की घटाओं की लपेट में जो जीव आ जाता है, वह विवश बन उसके अभेद्य बन्धनों में फँस जाता है और मोहवश अपने होश खो बैठता है । जबकि क्यारी में बीज भले ही पड़ा हो, लेकिन अगर उसे सींचा न जाए अथवा पानी न दिया जाय, तो वह फलता-फूलता नहीं, अंकुरित नहीं होता । फिर वृक्षरूप में प्रकट होने का सवाल ही नहीं रहता । जीवात्मा पाँच इन्द्रिय और मन लेकर जन्म धारण करता है । तब से ही उसकी इन्द्रियरूपी क्यारियों में मनघट से विषय - स्पृहा का जल - सिंचन अविरत रूप से होता ही रहता है । फलतः जैसे-जैसे वह बडा होता जाता है, वैसे-वैसे इन्द्रियों की क्यारियों में विषयवासना का पौधा अंकुरित होता रहता है और जब तक वह यौवनावस्था को पहुँचता है, तब विषय - पौधा भी घटादार वृक्ष का रूप धारण कर लेता है । जीव इसी विषय-विकार के घटादार वृक्ष की घनी छाया में सुस्ताता रहता है । मोह का गाढा जादू उस पर सवार हो जाता है । उसका चित्त भ्रमित होता जाता है और मन मायाजाल में उलझकर मुच्छित बन जाता है । अपने होश गँवा बैठता है, अंटशंट बकत रहता है । उसमें मर्कट- चेष्टाओं का संचार होता है और वह पराधीन बन संसार के बाजार में इधर-उधर भटकता रहता है । जीव जिस अनुपात से इच्छित विषयों का खाद्य देकर अपनी इन्द्रियों का पोषण करता रहता है, उसी गति से आत्मा में दुष्ट, मलीन और निकृष्ट विकार अबाध रूप से परिपुष्ट होते रहते हैं । जीवात्मा पर मोह-मूर्च्छा का शिकंजा कस जाता है । परिणाम स्वरूप वह मन-वचन काया से विवेकभ्रष्ट बन असीम दुःख 1 I
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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