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________________ ७२ और अपार अशान्ति का शिकार बन जाता है । तब इस दुःख और अशान्ति को दूर करने के लिए किसी जुआरी की तरह दुबारा दांव लगाता है । फिर से इन्द्रियों को खुश करने का भरसक प्रयत्न करता है । लेकिन आखिर में परिणाम शून्य ही आता है । उसकी हर कोशिश बेकार सिद्ध होती है और आन्तरिक दुःख अशान्ति घटने के बजाय उसमें उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है । परिणाम यह होता है कि दारुण दुःख और घोर अशान्ति के प्रहार सहन न कर पाने के कारण मृत्युभाजन बन जाता है । नाना प्रकार की दुर्गतियों में फँस कर नरक के गहरे कुँए में धकेल दिया जाता है । I ज्ञानसार अतः जिसको विकारों के विष वृक्ष से अपने आप को बचाना हो, उसे विषय लालसा और विकारों को पुष्ट करने की वृत्ति पर रोक लगानी चाहिए और मन ही मन दृढ़ संकल्प धारण कर, विषय-पोषण के बजाय जीवन के लिये परम सन्जीवनीस्वरूप सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक् चारित्र को पुष्ट करने की प्रवृत्ति में दत्तचित्त होना चाहिए । सरित्सहस्त्रदुष्पूरसमुद्रोदरसोदरः । तृप्तिमान्नेन्द्रियग्रामो भव तृप्तोऽन्तरात्मना ॥७॥३॥ , समुद्र अर्थ : यह जानकर कि असंख्य नदियों के द्वारा भी के उदर समान इन्द्रिय-समूह को तृप्त नहीं कर सकते, हे वत्स ! अन्तरात्मा से सम्यक् श्रद्धा का मार्ग अपनाकर अपने आप को तृप्त कर । विवेचन : गंगा-यमुना और ब्रह्मपुत्रा 'जैसी असंख्य नदियाँ निरन्तर समुद्र के उदर में समाती रहती हैं, अपनी अथाह जलराशि उंडेलती हैं। फिर भी समुद्र कभी तृप्त हुआ ? उसने अनमने भाव से नदियों को क्या कह दिया कि - " बस हो गया, तुमने मुझे तृप्त कर दिया । अब तुम्हारी जरूरत नहीं है ।" मतलब, वह तृप्त नहीं हुआ और ना ही अन्त समय तक होगा। क्योंकि तृप्त होना उसका मूल स्वभाव ही नहीं है । ठीक इसी तरह पाँचों इन्द्रियों के स्वभाव में भी संतुष्ट होने जैसी बात नहीं है । I इन्द्रियों का उदर भी सागर की गहराई जैसा अतल और गहरा है ।
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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