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ज्ञानसार
क्रियायुक्त बनता है । वह उपशम द्वारा ही विशुद्ध बनता है । तब उसे 'असंग
अनुष्ठान' की भूमिका प्राप्त होती है । जिसे सांख्य दर्शन में 'प्रशान्त वाहिता,' बौद्ध दर्शन में 'विसभापरिक्षय' शैवदर्शन में 'शिववर्त्म' और जैनदर्शन में 'असंग अनुष्ठान' की संज्ञा दी गयी है। इसे सम्पन्न करने के लिये शास्त्र के आधार की आवश्यकता नहीं होती । बल्कि जिस तरह चन्दन में सौरभ मिली है, उसी तरह उनमें (मुनि । योगी में) अनुष्ठान आत्मसात् होता है और यह अनुष्ठान जिनकल्पी महात्मा वगैरह में सदा सर्वदा होता है।
ध्यानवृष्टेर्दयानद्याः शमपूरे प्रसर्पति । विकारतीवृक्षाणां, मूलादुन्मूलनं भवेत् ॥६॥४॥
अर्थ : ध्यान रूपी सतत वृष्टि से दया रूपी सरिता में जब उपशम रूपी उत्ताल तरंगे उछलने लगती हैं, तब तट पर रहे विकार-वृक्ष जड़-मूल से उखड जाते है
विवेचन : गंगा-यमुना अथवा ब्रह्मपुत्र नदी में आयी प्रलयंकारी बाढ़ को देखने का कभी मौका मिला है ? तट पर लहराते-इठलाते उन्नत वृक्षों को क्षणार्ध में बाढ का भोग बन, धराशायी होते देखा है ? दया करूणा की सिंधु सदृश सरयु में जब शमजल की प्रलयंकारी बाढ़ आती है, तब अनादि काल से तट पर रहे फलते-फूलते भौतिक । पौद्गलिक विषय-वासना के गर्वोन्नत वृक्ष, गगनभेदी आवाज के साथ ढहते देर नहीं लगती।
लेकिन किसी सरिता में बाढ़ कब आती है ? जब निरन्तर मूसलाधार बारिश होती है ! ठीक उसी भाँति आत्मप्रदेश पर दया की नदी मंथर गति से बहती हो और तिस पर अविरत रूप से धर्म-ध्यान की वृष्टि भी होती हो, तब शमरस की बाढ आते देर नहीं लगती और बाढ़ के प्रबल प्रवाह में वासना के वृक्ष उखड़ते विलम्ब नहीं लगता ।
जब करुणा की / जीवदया की नदी में शमरस रूपी बाढ़ आती है, तब सर्व प्रथम जीवात्मा के मन में प्राणी मात्र के लिये 'सव्वे जीवा न हंतव्वा''संसार के सभी जीवों की हत्या नहीं करनी चाहिये, किसी तरह की पीडा नहीं