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आरुरुक्षुर्मुनिर्योगं, श्रयेद् बाह्यक्रियामपि । योगारुढः शमादेव, शुद्धत्यन्तर्गतक्रियः ॥६॥३॥
अर्थ : समाधि लगाने का इच्छुक साधु बाह्याचार का भी सेवन करे, आभ्यन्तर क्रियाओं से युक्त योगारूढ योगी समभाव से शुद्ध होता है ।
विवेचन : जिस आत्मा के अन्तर में समाधियोग ग्रहण करने की भावना पैदा हुई हो, वह प्रीति अनुष्ठान, भक्ति अनुष्ठान और वचनानुष्ठान द्वारा अपने में रहे अशुभ संकल्प-विकल्पों को दूर कर, शुभ संकल्पमय आराधक-भाव से सिद्धि प्राप्त करता है।
परमात्म-भक्ति, प्रतिक्रमण, शास्त्र-पठन, प्रतिलेखन आदि परमात्मदर्शित नानाविध क्रिया-कलापों में जीवात्मा को न जाने कैसा स्वर्गीय आनन्द मिलता है ! हिमालय की उत्तुंग पर्वत श्रेणियों पर विजय पाने का पर्वतारोहकों में रहा अदम्य उत्साह, 'एवरेस्ट' आरोहण की सूक्ष्मतापूर्वक की गयी भारी तैयारियाँ, आरोहण के लिये आवश्यक साज-सामान इकट्ठा करने की सावधानी ! इन सबमें महत्त्वपूर्ण है एक मात्र, 'एवरेस्ट' आरोहण की प्रवृत्ति ! मन में जगी तीव्र लालसा ! इसमें हमें कौन सी बात के दर्शन होते हैं ? कौन सी प्रवृत्ति देखने को नहीं मिलती? ठीक यही बात यहाँ भी है । समाधियोग के उत्तंग शिखर पर आरोहण करने उत्तेजित साधक आत्मा का उल्लास, अनुष्ठानों के प्रति परम प्रीति, उत्कट भक्ति एवं पौद्गलिक क्रीडा को तजकर सिर्फ 'समाधियोग' के शिखर पर चढ़ने की तीव्र प्रवृत्ति आदि होना सहज है । साथ ही धर्मग्रन्थों में दिग्दर्शित मार्ग का अनुसरण करने के उसके सारे प्रयत्न भी स्वाभाविक ही हैं । परम आराध्य तार्किक शिरोमणि उपाध्यायजी महाराज ने भी 'योगविंशिका' में 'वचनानुष्ठान' की व्याख्या इस तरह की है, 'शास्त्रार्थ-प्रतिसंधानपूर्वा साधोः सर्वत्रोचितप्रवृत्तिः ।' क्या एवरेस्ट आरोहक, आरोहण-गाइड का शत प्रतिशत अनुसरण नहीं करते ? अपनी प्रवृत्ति में क्रियाशील नहीं रहते ? प्रवृत्ति करते हुए आनंदित नहीं होते ? गाईड (मार्गदर्शक) के प्रति उनके मन में प्रीतिभाव और भक्ति नहीं होती? यही बात समाधि-शिखर के आरोहक के लिये भी अत्यन्त आवश्यक है।
__समाधि शिखर के विजेता बनते ही मुनिजन । योगी महापुरुष अन्तरंग