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________________ ज्ञानसार विवेचन : 'यह ब्राह्मण है..., यह शुद्र है..., यह जैन है.., यह विद्वान है..., यह अशिक्षित है..., यह बदसूरत है..., आदि भेद शमरस में ओतप्रोत योगी अनुभव नहीं करता । वह तो निखिल ब्रह्मांड को ब्रह्मस्वरूप मानता है । चित् स्वरूप आत्मा में अभेद भाव से देखता है। शमरस में लीन योगी चर्मचक्षु से संसार का अवलोकन नहीं करता । उसे उसका (संसार का) अवलोकन करने की आवश्यकता भी नहीं होती । वह तो दर्शन आत्मा के शुद्ध स्वरूप का ही करता है । आत्मा के अलावा विश्व को वह जानता ही नहीं । ब्रह्म के दो अंश माने जाते हैं : द्रव्य और पर्याय । योगी ब्रह्म के द्रव्यांश को परिलक्षित कर तत्त्वस्वरूप समस्त जगत का अवलोकन करता है । आत्मा की विभिन्न सांसारिक अवस्थायें पर्यायांश हैं । मानवता, पशुता, देवत्व, नरक, स्वर्ग, धनाढ्यता, गरीबी आदि सब आत्मा के पर्याय हैं । पर्यायांश में भेद है, जबकि द्रव्यांश में अभेद है। इस तरह द्रव्यास्तिक नय से किये गये दर्शन में राग का कोई स्थान नहीं है, ना ही द्वेष, ईर्ष्या-मत्सरादि वृत्तियों का / रागद्वेष की कंटीली परिधियों से ऊपर उठकर शमरस-सरोवर में गोते लगाता योगी, अल्पावधि में ही मोक्ष पाता है । __ श्री 'भगवद् गीता' में कहा है कि : विद्याविवेकसम्पन्ने, ब्राह्मणे गवि हस्तिनि । शुनि चैव श्वपाके च पंडिताः समदर्शिनः ॥ अ. ५. श्लोक १८॥ समदर्शी योगीजन विद्या-विवेकसम्पन्न ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ते और चाण्डाल में कोई भेद नहीं करते । बल्कि वे इन सब में समान रुप में स्थित आत्मद्रव्य को ही परिलक्षित करते हैं । उनके मन में न तो किसी ब्राह्मण के प्रति प्रीतिभाव होता है, ना ही किसी चांडाल के प्रति घृणा । ना ही गाय के प्रति दया भाव होता है, ना ही कुत्ते के लिये द्वेष भाव । जीवात्मा के दृष्टिकोण में जहाँ 'पर्याय' प्रधान बन जाता है, वहाँ विषमता दबे पाँव आ ही जाती है और फिर वह अकेली नहीं आती, बल्कि अपने साथ राग-द्वेष, मत्सरादि को भी ले आती है।
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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