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________________ शम ५९ ज्ञान का यही परिपाक है, आत्मपरिणति-स्वरुप ज्ञान का परिपाक ! यही आत्मा के विशुद्ध, अनन्त गुणों से युक्त स्वरूप का परिणाम है । यही शम है; मतलब समतायोग है । जीवात्मा शम-समता की भूमिका पर तभी पहुँच सकता है, जब वह अध्यात्म-योग, भावना-योग और ध्यान-योग की आराधना से पार उतरता है। अर्थात् वह उचित वृत्तिवाला व्रतधारी बन गया हो । उसने मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ भाव से ओत-प्रोत बन तत्त्वचिन्तन किया हो, परिश्रमपूर्वक शास्त्र-परिशीलन किया हो और प्रतिदिन स्व-वृत्तियों का निरोध करते हुए अध्यात्म का निरन्तर अभ्यास कर, किसी एक प्रशस्त विषय में तन्मय हो गया हो । स्थिर दीपक की तरह निश्चल एवं उत्पात्, व्यय और घौव्यविषयक सूक्ष्म उपयोगवाला चित्त बना सका हो । तभी वह समतायोग की प्राप्ति का अधिकारी बन सकता है। समतायोगी शुभ विषय के प्रति इष्ट बुद्धि नहीं रखता, ना ही अशुभ विषय के प्रति अनिष्ट बुद्धि । बल्कि उसकी दृष्टि में तो शुभ और अशुभ दोनों विषय समान ही होते हैं। उसके मन में 'यह मुझे इष्ट है और यह अनिष्ट है,' जैसा कोई विकल्प नहीं होता । ठीक उसी तरह 'यह पदार्थ मेरे लिये हितकारी है और वह पदार्थ अहितकारी', ऐसे विचार भी नहीं होते । वह तो सदा सर्वदा आत्मा के परम शुद्ध स्वरुप में ही डूबा रहता है । समतायोगी / शमपरायण जीवात्मा 'आमषैषिधि' वगैरह का इस्तेमाल नहीं करता । केवलज्ञानावरण आदि कर्मों का क्षय करता है । वह अपेक्षा-तंतुओं का विच्छेद-करता है। मतलब, बाह्य पदार्थ की उसे कभी अपेक्षा नहीं रहती । क्योंकि बाह्य पदार्थ की अपेक्षा ही बन्धन का मूल कारण है। अनिच्छन् कर्मवैषम्यं, ब्रह्मांशेन समं जगत् । आत्माभेदेन यः पश्येदसौ मोक्षंगमी शमी ॥६॥२॥ अर्थ : कर्मकृत विविध भेदों को नहीं चाहता हुआ और ब्रह्मांश के द्वारा एक स्वरूपवाले जगत को आत्मा से अभिन्न देखता हुआ, ऐसा उपशमवाला जीवात्मा मोक्षगामी होता है।
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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