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शम
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ज्ञान का यही परिपाक है, आत्मपरिणति-स्वरुप ज्ञान का परिपाक ! यही आत्मा के विशुद्ध, अनन्त गुणों से युक्त स्वरूप का परिणाम है । यही शम है; मतलब समतायोग है । जीवात्मा शम-समता की भूमिका पर तभी पहुँच सकता है, जब वह अध्यात्म-योग, भावना-योग और ध्यान-योग की आराधना से पार उतरता है। अर्थात् वह उचित वृत्तिवाला व्रतधारी बन गया हो । उसने मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ भाव से ओत-प्रोत बन तत्त्वचिन्तन किया हो, परिश्रमपूर्वक शास्त्र-परिशीलन किया हो और प्रतिदिन स्व-वृत्तियों का निरोध करते हुए अध्यात्म का निरन्तर अभ्यास कर, किसी एक प्रशस्त विषय में तन्मय हो गया हो । स्थिर दीपक की तरह निश्चल एवं उत्पात्, व्यय और घौव्यविषयक सूक्ष्म उपयोगवाला चित्त बना सका हो । तभी वह समतायोग की प्राप्ति का अधिकारी बन सकता है।
समतायोगी शुभ विषय के प्रति इष्ट बुद्धि नहीं रखता, ना ही अशुभ विषय के प्रति अनिष्ट बुद्धि । बल्कि उसकी दृष्टि में तो शुभ और अशुभ दोनों विषय समान ही होते हैं। उसके मन में 'यह मुझे इष्ट है और यह अनिष्ट है,' जैसा कोई विकल्प नहीं होता । ठीक उसी तरह 'यह पदार्थ मेरे लिये हितकारी है और वह पदार्थ अहितकारी', ऐसे विचार भी नहीं होते । वह तो सदा सर्वदा आत्मा के परम शुद्ध स्वरुप में ही डूबा रहता है ।
समतायोगी / शमपरायण जीवात्मा 'आमषैषिधि' वगैरह का इस्तेमाल नहीं करता । केवलज्ञानावरण आदि कर्मों का क्षय करता है । वह अपेक्षा-तंतुओं का विच्छेद-करता है। मतलब, बाह्य पदार्थ की उसे कभी अपेक्षा नहीं रहती । क्योंकि बाह्य पदार्थ की अपेक्षा ही बन्धन का मूल कारण है।
अनिच्छन् कर्मवैषम्यं, ब्रह्मांशेन समं जगत् । आत्माभेदेन यः पश्येदसौ मोक्षंगमी शमी ॥६॥२॥
अर्थ : कर्मकृत विविध भेदों को नहीं चाहता हुआ और ब्रह्मांश के द्वारा एक स्वरूपवाले जगत को आत्मा से अभिन्न देखता हुआ, ऐसा उपशमवाला जीवात्मा मोक्षगामी होता है।