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शम
पहुँचानी चाहिये', ऐसी करूणा प्रकट होनी चाहिये । करूणा के साथ-साथ ध्यान-धारा का प्रवाहित होना भी जरूरी है ।
मतलब, तीसरा ध्यान - योग है, जिसका अनुसरण जीवात्मा के लिये अत्यन्त जरुरी है । 'ध्यानं स्थिरोऽध्यवसाय : ' ' श्री ध्यान विचार' ग्रन्थ में, स्थिर अध्यवसाय को 'ध्यान' कहा गया है। आर्त- रौद्र यह द्रव्यध्यान है, जबकि आज्ञा विचय, अपाय विचय, विपाक विचय और संस्थान विचय रूपी धर्मध्यान भावध्यान है । 'पृथक्त्व वितर्क सविचार' रूपी शुक्लध्यान का पहला भेद 'परमध्यान' है । परम आदरणीय श्री मलयगिरि महाराज ने श्री आवश्यक सूत्र में धर्मध्यानी के निम्नांकित लक्षणों का वर्णन किया है :
सुविदियजगरसभावो निस्संगो निब्भओ निरासो अ । arrभावियमणो ज्ञाणम्मि सुनिच्चलो होइ ॥
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'जो जगत्-स्वभाव से परिचित है, निर्लिप्त है, निर्भय है, स्पृहा - रहित है और वैराग्य भावना से ओतप्रोत है, वही आत्मा ध्यान में निश्चल / तल्लीन रह सकती है ।' ऐसी महान आत्मा जिस वेग से धर्मध्यान की ओर अग्रसर होती जाती है, उसी अनुपात से उसके हृदयवारिधि में उपशम- तरंगें उठती जाती हैं, शमरस की प्रलयंकारी बाढ आती है और विकास-वासना के वृक्ष आनन-फानन में धराशायी हो जाते हैं ।
ज्ञान-ध्यान - तपः शील- सम्यक्त्वसहितोऽप्यहो । तं नाप्नोति गुणं साधुर्यमाप्नोति शमान्वितः ॥६॥५॥
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अर्थ : जो गुण, ज्ञान-ध्यान, तप, शील और समकितधारी साधु भी प्राप्त नहीं कर सकता, वह गुण शमयुक्त साधु आसानी से प्राप्त कर लेता है ।
विवेचन : भले ही नौ तत्त्वों का बोध हो, किसी एक प्रशस्त विषय में सजातीय परिणाम की धारा प्रवाहित हो, अनादिकालीन अप्रशस्त विषयवासनाओं के निरोध स्वरुप उग्र तपश्चर्या हो, नौ प्रकार के ब्रह्मचर्य का पालन हो, जिन-प्रणीत वचन और सिद्धान्तों के प्रति अटूट श्रद्धा हो, फिर भी यदि जीवात्मा के जीवन में 'शम' के लिये स्थान नहीं है, उसमें समता नामक वस्तु