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________________ ज्ञानसार राग-द्वेष को जीवन में स्थान दे । इस तरह प्रत्येक मुनि का कर्तव्य होता है कि वह अपने आप को, अपनी आत्मा को संतुष्ट करे... करते रहना चाहिए और यही उसका रहस्यज्ञान है । अर्थात् यह मान कर कि मुनि का दर्शन-ज्ञान-चारित्र से भिन्न अस्तित्व ही नहीं है। उसे सदैव ज्ञान, दर्शन चारित्रमय आत्मा में खो जाना चाहिए और यही उसका परम कर्तव्य है । अतः इसके लिये उपयुक्त भावना का सदा-सर्वदा अपने मन में चिन्तन-मनन करते रहना अत्यन्त आवश्यक है। साथ ही, जहाँ कहीं उसके चित्त की परपुद्गल के प्रति आसक्त होने की सम्भावना पैदा हो, उसे इस संक्षिप्त रहस्यज्ञान का आधार ले, खुश कर, तुरन्त रोक लेना चाहिए । मोह को उखाड़ फेंकने के लिये 'रहस्यज्ञान' एक अमोघ शस्त्र है। अस्ति चेद् ग्रन्थिभिज्ज्ञानं, किं चित्रैस्तंत्रयंत्रणैः । ... प्रदीपा: क्वोपयुज्यन्ते, तमोजी दृष्टिरेव चेत् ॥५६॥ अर्थ : ग्रन्थिभेद से मिला ज्ञान जब तुम्हारे पास है, तब भला, अनेकविध शास्त्रों के बन्धनों की आवश्यकता ही क्या है ? यदि अन्धकार का उच्छेदन करनेवाली आँख तुम्हारे पास है, तो दीपमाला तुम्हारे किस उपयोग में आयेगी? विवेचन : जिस मनुष्य की आँखों में ही इतनी तेजस्विता है कि जो घने अन्धेरे को छिन्न-भिन्न करने में शक्तिमान है, तब उसे दीपशिखा की क्या गरज? ठीक उसी तरह जिस आत्मा ने मोह-माया की ग्रन्थियों को विदीर्ण कर लिया है और आत्मस्वरूप का साक्षात्कार हो गया है, उसके लिये भला अनेकविध शास्त्रों का ज्ञान किस काम का ? प्रबल राग-द्वेष की परिणतिमय ग्रन्थि के भेदने से आत्मा में सम्यक्त्व का प्रादुर्भाव होता है, उसका प्रखर प्रकाश आत्मा में फैल जाता है । लेकिन ग्रन्थिभेद की भी कुछ शर्ते हैं । १. संसार-परिभ्रमण की अवधि सिर्फ 'अर्ध पुद्गल परावर्त' बाकी हो । २. आत्मा भव्य हो और ३. आत्मा पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय हो । तब वह ग्रन्थिभेद करने के लिये शक्तिमान है । ग्रन्थिभेद के पश्चात् सम्यकत्व की भूमिका पर अवस्थित आत्मा में प्रतिभास ज्ञान टिक नहीं सकता।
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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