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ज्ञान
निर्धारित भव-चक्र के फेरे लगा रहा है, चक्कर काट रहा है ।
_मतलब यह कि वाद-विवाद से अलिप्त रहकर शास्त्रज्ञान के माध्यम से आत्मस्वरूप की ओर गतिशील होना ही हितावह है ।
स्वद्रव्यगुण-पर्यायचर्या वर्या पराऽन्यथा । इति दत्तात्मसंतुष्टिर्मुष्ठिज्ञानस्थितिमुनेः ॥५॥५॥
अर्थ : अपने द्रव्य, गुण और पर्याय में परिणति श्रेष्ठ है । पर-द्रव्य, गुण और पर्याय में परिणति ठीक नहीं ।' इस तरह जिसने आत्मा को संतुष्ट किया है, ऐसा संक्षिप्त रहस्यज्ञान, मुनिजन की मर्यादा मानी गयी है।
विवेचन : हे मुनिवर्य ! तुमने अपने लिए समस्त ज्ञान का कौन सा रहस्य पा लिया है ? क्या उक्त रहस्यज्ञान से तुम अपने आप को संतुष्ट कर पाये। हो ?
'पर द्रव्य, परगुण और पर पर्याय में परिभ्रमण कर, तुम परिश्रान्त बन गये हो, थक गये हो । अनादि काल से 'पर' में परिभ्रमण कर तुम संतुष्ट नहीं हो, बल्कि उत्तरोत्तर तुम्हारे असंतोष में वृद्धि ही होती रही है। अब उसे संतुष्ट करना जरूरी है। साथ ही यह कदापि न भूलो कि परद्रव्य, गुण और पर्याय में अभी वर्षों भटकने के बावजूद आत्मा को संतोष नहीं होगा, बल्कि उसके असंतोष में बढोतरी ही होनेवाली है।
'हे आत्मन् ! तुम अपने में ही परिणति करो। तुम स्वयं विशुद्ध आत्मद्रव्य हो । अतः उसमें रमण करो । तू अपने में निहित ज्ञान, दर्शन, चारित्रादि गुणों में तन्मय हो जा । तू अपनी वर्तमान तीनों अवस्था का दृष्टा बन । तेरे त्रैकालिक पर्याय विशुद्ध हैं । अतः उन विशुद्ध पर्यायों में परिणति कर ले । क्योंकि यही परिणति सर्वश्रेष्ठ है।'
___हे आत्मन्, परद्रव्य-गुण-पर्याय के प्रति आसक्ति रखना मिथ्या है, गलत है। अत: उसका तन-मन से त्याग कर दो । फलतः अपने शरीर, भवन, धन-धान्यादि संपदा, रस-रूप, गन्ध, स्पर्श, शब्द आदि का मोह न कर, ना ही शरीर, सम्पत्ति, रूप-रसादि पर-पदार्थों की परिवर्तनशील अवस्थाओं में भी