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________________ ज्ञान ५५ अर्थात् इहलोक-परलोक के भौतिक पदार्थों के प्रति जब-जब वह आकर्षित होता है, तब उन्हें तात्त्विक दृष्टि से देखता है, ज्ञानी जनों की नजर से देखता है। मतलब, क्या आत्मा को हितकारी है और क्या अहितकारी है, इसका उसे पूरा आभास होता है । जब तक आत्मा को इहलोक - परलोक में वास्तविक हित-अहित का प्रतिभास / सही ज्ञान नहीं होता, तब तक यह समझना चाहिए कि उसका ग्रन्थिभेद नहीं हुआ है, बल्कि वह मिथ्यात्व की भूमिका पर हि स्थित है । संसार में रहे किसी रूप, रस, गन्ध, स्पर्श अथवा शब्द का साक्षात्कार होने पर 'यह मेरी आत्मा के लिये हितकारी है अथवा अहितकारी ?' समझने की कला यदि हमें हस्तगत हो जाए, तब नि:संदेह हमारे भाव चारित्र और तत्त्वपरिणति की मंजिल दूर नहीं है । आत्म-परिणति के अविरत अभ्यास, चिन्तनमनन से तत्त्व - परिणति युक्त ज्ञानोपार्जन होता है । अगर हमें आत्म- परिणति युक्त ज्ञान (ग्रन्थिभेद से उत्पन्न ) प्राप्त हो गया है, तो फिर विविध शास्त्रों के बन्धनों का प्रयोजन ही क्या है ? शास्त्राभ्यास और पठन, चिन्तन ग्रन्थिभेद के लिये ही किया जाता है । अतः ग्रन्थिभेद के होते ही आत्मा में से ज्ञानप्रकाश प्रकट होता है । मिथ्यात्वशैलपक्षच्छिद्, ज्ञानदम्भोलिशोभितः । निर्भयः शक्रवद् योगी, नन्दत्यानन्दनन्दने ॥५॥७॥ अर्थ : मिथ्यात्व रुपी पर्वत की चोटियों को छेदनेवाले और ज्ञानरूपी वज्र से सुशोभित सर्वशक्तिमान इन्द्र की तरह निर्भय योगी सदैव आनन्दरुपी नन्दनवन में केलि-क्रीड़ा करता है, सुखों का अनुभव करता है । विवेचन : देवराज इन्द्र को भला भय कैसा ? जिसके पास असीम आकाश की क्षितिजों को पार करनेवाला, उत्तुंग पर्वत शिखरों को चूर-चूर करने में शक्तिशाली वज्र जैसा सर्वोच्च शस्त्र है, उसे भला किस बात का डर ? वह तो सदा सर्वदा स्वर्गीय आनन्द के नन्दन-वन में केलि करता रहता है । उसका चित्त प्रायः निर्भय और अभ्रान्त होता है । इसी भाँति योगीराज को भय कैसा ? जिसके पास मिथ्यात्व के हिम शिखरों को आनन-फानन में छेदनेवाला एकमेव शस्त्र 'ज्ञान' जो है । ज्ञान वज्र
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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