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________________ ५१ के लिये उत्तेजित करता रहता है और, ऐसे ही ज्ञान की हमें आवश्यकता है। हमें ऐसे ज्ञान की कतइ गरज नहीं, जिससे जैसे-जैसे ग्रन्थाभ्यास बढता जाए, अध्ययन की प्रवृत्ति बढ़ती जाए, वैसे-वैसे पुद्गल-विषयक आसक्ति । चाह की गति में भी बढोतरी होती जाए । इससे तो रागवृद्धि और द्वेषवृद्धि के अलावा और कुछ नहीं होगा । फलत: मन में असत् ऐसी रस-ऋद्धि और शाता की लोलुपता निर्बाध गति से बढती जाएगी। . भगवान सुधर्मास्वामी ने जंबुकुमार को प्रतिबोध / ज्ञान-दान दिया और वे संसार-सागर से तैर गये / पार लग गये । खंधकसूरिजी ने अपने पाँच सौ शिष्यों को ज्ञान (प्रतिबोध) दिया । पाँच सौ शिष्यों में इसी ज्ञान के बल से आत्मस्वरूप प्राप्ति की वासना जगी । फलस्वरूप, इसे हासिल करने के लिये उन्होंने कोल्हू में पीस जाना बेहतर समझा । अरे, वासना के खातिर मनुष्य क्याक्या नहीं करता? एक बार वासना पैदा होनी चाहिये । फिर कोल्हू में पीस जाना दुष्कर नहीं है, ना ही अग्नि में जल जाना कठिन है। उसके लिए पर्वत से छलांग लगाना, भूख और प्यास से अस्थि-पिंजर बनना, बोटी-बोटी कटवाना... आदि बातें असाध्याय नहीं बल्कि साध्य हैं। हाँ, ऐसी तीव्र वासना जीवात्मा में पैदा होनी चाहिये । वासना को तीव्र बनानेवाली, बढ़ावा देनेवाली, उसे उत्तेजित करनेवाली एक ही शक्ति है और वह है ज्ञान । हमें ऐसे ही ज्ञान की जरूरत है । यही ज्ञान उपादेय है। इसके अलावा जो ज्ञान होगा, वह तो सिर्फ छलावा है। महात्मा पतंजलि ने यही कहा है और यह बात सर्वसम्मत है। . वादांश्च प्रतिवादांश्च वदन्तोऽनिश्चितांस्तथा । तत्त्वान्तं नैव गच्छन्ति, तिलपीलकवद् गतौ ॥५॥४॥ अर्थ : निरर्थक वाद (पूर्वपक्ष) और प्रतिवाद (उत्तरपक्ष) में फंसे जीव कोल्हू के बैल की तरह तत्त्व का पार पाने में पूर्णतया असमर्थ होते हैं। .. विवेचन : जिस शास्त्र ज्ञान से अन्तर्शत्रुओं पर विजय पाना है, बाह्य पार्थिव जगत से अन्त: चेतना की ओर गतिमान होना है, अरे जीव ! उसी शास्त्र के सहारे तू निरर्थक वाद-विवाद में उलझकर रह गया? जो इष्ट है, उसे छोड़ दिया और जो अनिष्ट है, उसके पीछे लग गया ? राग और द्वेष का शरणागत
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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