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________________ ज्ञानसार ५० करो' । लगातार बारह वर्ष तक महामुनि ने इसी पद का सतत चिन्तन-मनन किया, उसका सूक्ष्मता से परिशीलन किया । फल यह हुआ कि बारह वर्ष की अवधि के बाद वे मोक्ष - पद के अधिकारी बने । सिर्फ एक ही पद के चिन्तनमनन से उन्हें सिद्धि मिली : 'मा रुष, मा तुष' क्योंकि उनके लिए यह पद एक प्रकार का उत्कृष्ट जादू बन गया और उन्हें मुक्ति - पद की प्राप्ति हुई । - तत्त्वचिन्तन में अपने आप को विलीन कर देना, लयलीन कर देना ही उच्च कोटि का ज्ञान है । स्वभावलाभसंस्कारकारणं ज्ञानमिष्यते । ध्यान्ध्यमात्रमतस्त्वन्यत्, तथा चोक्तं महात्मना ॥५॥३॥ अर्थ : ऐसे ज्ञान की इच्छा करते हैं, जो आत्म-स्वरुप की प्राप्ति का कारण हो । इससे अधिक सीखना / अभ्यास करना, बुद्धि का अन्धापन है । इसी प्रकार महात्मा पतंजलि ने भी कहा है । विवेचन : ज्ञान वही है, जो आत्मस्वरुप की प्राप्ति हेतु जीवात्मा को निरन्तर बढावा देता रहता है। आत्मस्वरूप को जानने की मन में वासना जगाता है । वासना वह है, जो किसी विषय को गहराई से जानने की प्रवृत्ति मन में पैदा करती है। उसे पाने के लिये अथक परिश्रम करने की प्रेरणा देती है, उसके पीछे हाथ धोकर पड़ने के लिये उकसाती रहती है । जैसे, यदि किसीको किसी युवती के प्रति वासना जगी, मसलन वह उसे वशीभूत करने के लिये सतत कार्यशील रहेगा। उसके मन में सोते-जागते, उठते-बैठते, घूमते-घामते केवल एक ही विचार रहेगा' : 'उस युवती को कैसे प्राप्त किया जाय ? और उसकी हर प्रवृत्ति उसे पाने की रहेगी। यह वासना पैदा किसने की ? उसके पीछे कौनसी शक्ति काम कर रही है ? यह वासना युवती के मनोहर दर्शन से पैदा हुई । मतलब, युवती - विषयक ज्ञान के कारण ही वासना उसके मन में जगी । 1 यही शाश्वत् सत्य है, जो यहाँ भी लागु पड़ता है । आत्मस्वरूप का ज्ञान होते ही वह ज्ञान जीवात्मा को अविरत रूप से आत्मस्वरूप के विचारों में ही मन कर देता है और उसकी प्राप्ति के लिये आवश्यक पुरुषार्थ / प्रवृत्तियाँ करने
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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