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________________ ४९ अर्थ : एक भी निर्वाणसाधक पद जो कि बार-बार आत्मा के साथ भाषित किया जाता है, वही श्रेष्ठ ज्ञान है । ज्यादा ज्ञान-प्राप्ति यानी ज्यादा पढ़ाई का आग्रह नहीं है । ज्ञान विवेचन : हमारा यह कतई आग्रह नहीं है कि तुम अनेकविध ग्रन्थों को पढ़ो, उनका पठन-पाठन और अवगाहन करो । ना ही यह आग्रह है कि विस्तृत जानकारी का अच्छा-खासा भण्डार खड़ा कर दो। बल्कि हमारा सिर्फ इतना ही आग्रह है कि निर्वाणसाधक पद, ग्रन्थ अथवा श्लोक का सूक्ष्म अभ्यास कर लें । उसमें एकरूप हो जायें, सतत उसका ही रटन और चिन्तन-मनन करते रहें, तो बेड़ा पार लगते देर नहीं लगेगी । मोक्ष की मंजिल की तरफ गतिशील करनेवाला एकाध चिन्तन भी तुम्हें आलोडित, प्लाबित कर गया, तो वह सच्चा ज्ञान है। ज्ञान को उत्कृष्ट बनाने के लिये निम्नांकित चार सूत्र अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं : • हाथ में रहा ग्रन्थ बन्द कर देने के बाद भी ग्रन्थोक्त विचारों का चिन्तनपरिशीलन सतत चलते रहना चाहिये । जैसे-जैसे ग्रन्थोक्त विचारों के परिशीलन में वृद्धि होती जाए, वैसे-वैसे तत्त्वोपदेशक परम कृपालु वीतराग भगवन्त के प्रति प्रीति - भावना और गुरुजनों के प्रति श्रद्धा-भावना, कृतज्ञ - भाव, तत्त्वमार्ग के प्रति उत्कट आकर्षण आदि हमारे हृदयप्रदेश में पैदा होने चाहिए । 1 • तत्त्व का विवेचन हमेशा शास्त्रोक्त पद्धति और युक्तियों के माध्यम से करना चाहिए | आगमोक्त शैली के अनुसार होना चाहिए। मतलब, हमारे द्वारा किया गया विवेचन शास्त्रपद्धति के अनुसार होना चाहिए । आगमविरोधी भावना से युक्त नहीं होना चाहिए । • जिस तरह तत्त्वचिन्तन की गति बढ़ती जाएगी, उसी तरह कषायों का उन्माद शान्त होता जाएगा । संज्ञाओं की बुरी आदतें कम होती जायेंगी और गारवों ( रस - ऋद्धि - शाता) का उन्माद मन्द होता जाएगा । एकबार गुरुदेव ने अपने शिष्य 'माषतुष मुनि' को निर्वाणसाधक ऐसा एक पद दिया : 'मा रुष... मा तुष ।' अर्थात् 'न कभी द्वेष करो, न कभी राग
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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