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ज्ञानसार
साथ सूक्ष्मावलोकन किया जाय, तो जीवात्मा की आन्तरिक भावना की थाह पायी जा सकती है । उसकी सही रुचि, अनुराग का पता लग सकता है ।
जहाँ सिर्फ भौतिक और वैषयिक सुख-दुःख की चर्चा होती हो, पद्गलानन्दी जीवों का सहवास ही प्रिय हो, कुपदार्थों की चर्चा चलती हो, मिथ्यात्वी किस्से-कहानियाँ कही जाती हों और इन्द्रियों को तृप्त करनेवाली बातें सुनना ही प्रिय हो, इससे उसकी परख होती है कि उसका सही आकर्षण भौतिक, वैषयिक पदार्थों की ओर है । उसका अनुराग काम-वासनादि सुखों के प्रति ही है। हालाँकि यह सब आकर्षण, अनुराग, चाह, भावनादि वृत्तियाँ जीवात्मा की अज्ञानता है, मोहान्धता है और उसकी अवस्था मल-मूत्र से भरे गंदे नाले में गोता लगाते एकाध सूअर जैसी है।
जबकि जो ज्ञानी हैं, वास्तवदर्शी-सत्यदर्शी हैं, उनका ध्यान सदैव जहाँ आत्मोन्नति व आत्मकल्याण की चर्चा होती हो, उस तरफ ही जाएगा । उसे आत्मज्ञानी-जनों का सतत समागम ही पसन्द आएगा । उसके हृदय में आत्मस्वरूप और उससे तादात्म्य साधने की भावना ही बनी रहेगी। उसके मुँह से आत्मा, महात्मा एवं परमात्मा की कथायें ही सुनने को मिलेंगी और इन्हीं कथाओं के पठन-पाठन में वह सदा खोया दिखायी देगा । जिस तरह राजहंस मानसरोवर में मुक्त मन से क्रीडा करता दृष्टिगोचर होता है। उसकी वह स्थिति सभी दृष्टि से प्रगतिपरक और उन्नतिशील होती है।
साधक आत्मा का फर्ज है कि वह अपना आत्म-निरीक्षण करते समय सदैव यह प्रश्न उठाये कि "मैं ज्ञानी हूँ अथवा अज्ञानी ?" और इसका निराकरण भी अपने आप अन्तर्मन की गहराईयों में जाकर करें । सत्य किसी से छिपा नहीं रहेगा । यदि उसे अपनी स्थिति अज्ञानता से परिपूर्ण लगे, तो फौरन उसे ज्ञानक्षेत्र को विस्तृत और विकसित करने में जुट जाना चाहिए । यह प्रक्रिया जब तक केवलज्ञान की प्राप्ति न हो, तब तक अबाध रूप से, निरन्तर चलनी चाहिए ।
निर्वाणपदमप्येकं, भाष्यते यन्मुहुर्मुहुः । तदैव ज्ञानमुत्कृष्टं, निर्बन्धो नास्ति भूयसा ॥५॥२॥