SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञानसार शरीर का बाह्य रंग-रुप, गुण मात्र है । वास्तव में तो आत्मा स्फटिक-रत्न की तरह निर्मल, विमल और विशुद्ध है । न तो उसका स्वरूप काला अथवा गोरा है, ना ही उसकी आकृति सुन्दर अथवा बेडोल है। यह सब कर्मों का खेल है। आत्मा कर्म की छाया से ढकी हुई है और ये सब उसके विभिन्न प्रतिबिम्ब है। मोहदृष्टि को चूर-चूर करनेवाला यह चिंतन, विशुद्ध आत्मस्वरूप का चिंतन-मनन, कितना तो अलौकिक और प्रभावशाली है ? शक्ति सम्पन्न है ? इसकी प्रतीति तभी हो सकती है जब इसका सही रूप में प्रयोग किया जाए । कोरी बातें करने से काम नहीं बनेगा । पूर्णता पाने के लिए हमें तन-मन से प्रवृत्त होकर इसका अमल करना होगा । तभी पराये को अपना मानने की जडता दूर होगी और अन्त:चक्षु के द्वार खुल जाएँगे। अनारोपसुखं मोहत्यागादनुभवन्नपि ।। आरोपप्रियलोकेषु वक्तुमाश्चर्यवान् भवेत् ॥४॥७॥ अर्थ : योगी, मोह-त्याग से (क्षयोपशम से) आरोपरहित स्वाभाविकसुख अनुभव करते हुए भी रात-दिन असत्याचरण में खोये मिथ्यात्वी जीवों को, अपना अनुभव कहने में आश्चर्य करता है । विवेचन : वीतराग सर्वज्ञ भगवत द्वारा प्रतिपादित योगमार्ग पर निरंतर गतिशील योगी पुरुष, देवाधिदेव की अनन्य कृपा से जब मोह का क्षय-उपशम करनेवाला बनता है और उस पर छाये मोहादि-आवरण के प्रभाव को नहीवत् बना देता है, तब आत्मा के स्वाभाविक (कर्मोदय से अमिश्रित) सुखों का अनुभव करता है। ऐसे नैसर्गिक आत्मीय सुख के अनुभवी महात्मा के समक्ष जब सामान्यजनों की भीड उभर आए, जिस पर मोहनीय कर्म का अनन्य प्रभाव हो, तब उन्हें क्या उपदेश दिया जाए, यह एक यक्ष प्रश्न होता है । ना तो वे अपने स्वाभाविक सुख के अनुभव की बात कह सकते हैं नहीं जिसकी वह सुख मान रहे हैं, उसे 'सुख' की संज्ञा दे सकते हैं । तब वे असमंजस में पड़ जाते हैं । अजीब कशमकश मे फंस जाते हैं कि, 'इस प्रजा को क्या कहा जाए ?'
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy