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अमोह विशुद्ध-व्यवहारी बन सकती है।
निर्मलं स्फटिकस्येव सहज रुपमात्मनः । अध्यस्तोपाधिसम्बन्धो जडस्तत्र विमुह्यति ॥४॥६॥
अर्थ : आत्मा का वास्तविक सिद्ध स्वरुप स्फटिक की तरह विमल, निर्मल और विशुद्ध है ! उसमें उपाधि का सम्बन्ध आरोपित कर अविवेकी जीव आकुल-व्याकुल होता है।
विवेचन : यदि स्फटिक-रत्न के पीछे लाल कागज लगा हुआ है, तो वह स्फटिक लाल दिखायी देता है, तब अगर कोई तुम्हें पूछे : "स्फटिक कैसा है ?" तुम क्या जवाब दोगे? 'स्फटिक लाल है !' यूँ कहोगे अथवा 'स्फटिक लाल दिखायी देता है !' आखिर जवाब क्या दोगे? क्योंकि लालिमा तो उसकी उपाधि है, वह मूल रूप में तो लाल है ही नहीं !
ठीक उसी तरह हम आत्मा को लें । क्या वह मूल रूप में एकेन्द्रिय है ? द्वि-इन्द्रिय है ? या पंचेन्द्रिय है ? उसका मूल रंग क्या श्याम, पीत, लाल अथवा गोरा है ? मोटापा, पतलापन, छरहरापन, ऊँचाई, चौडाई उसका वास्तविक रूप है ? क्या वह स्वाभाविक रूप में शोक, हर्ष, विषाद, राग द्वेष इत्यादि से युक्त है ? इन सब का उत्तर इन्कार में ही आएगा।
स्फटिक की श्यामलता, लालिमा और गौरता को परिलक्षित कर उसे लाल पीला अथवा गोरा कहनेवाला मनुष्य मूर्ख है-एक नम्बर का शेखचिल्लो है। उसी भाँति जीवात्मा के एकेंद्रिय, द्वि-इन्द्रिय, पंचेन्द्रिय स्वरूप को देखकर उसे एकेन्द्रिय, द्वि-इन्द्रिय अथवा पंचेंद्रिय माननेवाला भी नीरा मतिमंद और अज्ञानी है। उसकी श्यामलता, गौरता और पीतता को निरख, उसे श्याम, पीत और गौर समझनेवाला भी निपट मूर्ख के अलावा भला, क्या है ?
आत्मा का श्याम स्वरुप, उसकी बदसुरती, उसके टेढे वक्र अंगोपांग को देखकर मन में नफरत पैदा होती है, ठीक वैसे ही उसकी गौरता, सुघडता सौन्दर्य के दर्शन कर प्रीति-भाव उत्पन्न होता है । वह एक प्रकार की जडता नहीं तो और क्या है ? क्योंकि वह जरा भी नहीं सोचता कि यह तो आत्मा के