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________________ ज्ञानसार अर्थ : विकल्प रुपी मदिरा-पात्रों से सदा मोह-मदिरा का पान करनेवाला जीवात्मा, सचमुच जहाँ हाथ ऊँचे कर, तालियां बजाने की चेष्टा की जाती है वैसे संसार रुपी मदिरालय का आश्रय लेता है। विवेचन : संसार यह एक मदिरालय है । सुभग, सुन्दर और सुखद मोह-मादक मदिरा है। विकल्प मदिरा-पान का पात्र है ! अनादिकाल से जीवात्मा संसार की गलियों की खाक छान रहा है ! पौद्गलिकसुख और मोह-माया के विकल्पों में आकण्ठ डूब मदोन्मत्त बन गया है, नशे में धुत्त है। वह क्षणार्ध में तालियां बजाता नाचने लगता है तो पलक झपकते न झपकते करतल ध्वनि करता सुध-बुध खो देता है ! क्षणार्ध में खुशी से पागल हो उठता है तो क्षणार्ध में शोक-मग्न बन क्रंदन करने लगता है ! क्षणार्ध में कीमती वस्त्र परिधान कर बाजार घूमता नजर आता है तो क्षणार्ध में वस्त्र-विहीन नंग-घडंग बन धूल चाटता दिखायी देता है ! अभी कुछ समय पहले 'पिता-पिता' कहते उनका गला भर आता है तो कुछ समय के बाद हाथ में डंडा ले, उस पर टूट पड़ता है ! एक-दो क्षण पहले जो माता 'मेरा पुत्र मेरा पुत्र'... कहते हुए वात्सल्य से ओत-प्रोत हो जाती है, तो क्षण में ही शेरनी बन उसकी बोटी-बोटी नोचने के लिए पागल हो जाती है ! सुबह में 'मेरे प्राणप्रिय हृदयमन्दिर के देवता,' कहनेवाली नारी शाम ढलते न ढलते 'दुष्ट, चांडाल' शब्दोच्चारण करती एक अजीब हंगामा करते देर नहीं करती ! मोह-मदिरा का नशा... वैषयिक सुखों की तमन्ना ! उसमें अटका जीव न जाने कैसा उन्मत्त, पागल बन मटरगस्ती करता नजर आता है ? जब तक मोहमदिरा के चंगुल से आजाद न हुआ जाए, विकल्प के मदिरा-पात्र फेंक न दिये जाए तब तक निविकार ज्ञानानन्द में स्थिर-भाव असम्भव है। जब तक ज्ञानानन्द में स्थिर न हो तब तक परम ब्रह्म में मग्न होना तो दूर रहा, उसका स्पर्श तक कठिन है । जबकि परम ब्रह्म में मग्नता साधे बिना पूर्णता, आत्म-स्वरूप की परिपूर्णता और अनंत गुणों की समृद्धि पाना असम्भव है। स्थिरता के पात्र से ज्ञानामृत का पान करनेवाली जीवात्मा ही विवेका,
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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