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________________ ४१ अमोह पाये हैं। वे इस स्थिति से बिल्कुल बेखबर जो हैं । जन्म, यौवन, जरा और मृत्यु में शोक-हर्ष करती हुई आत्माएँ तीव्र दुःख और क्लेश का अनुभव करती छटपटा रही हैं। लेकिन भवचक्र नगर में अवस्थित जीवात्मा, जो मूढता से मुक्त बन गयी है, औदयिकभाव जिसे अपनी ओर आकर्षित नहीं कर सकते 'फिर भी मोह की नाट्यभूमि पर उसे निःसहाय, दीन बन कर अब भी रहना पडा है, लेकिन स्व और पर के जीवन में घटित विविध घटनाओं को देखने की प्रवृत्ति में आमूल परिवर्तन आ जाने के कारण, वह उसे सिर्फ 'मोहप्रेरित मोहक नाटक' समझ, उसके प्रति अनासक्त, उदासीन हो गयी है। उसे यह देखकर न खेद है ना कोई आनन्द ! वह स्थितप्रज्ञ जो बन गयी है ! समग्र सृष्टि को यहाँ एक नगर की संज्ञा दी गई है और नरक गति, मनुष्य गति, तिर्यंच गति और देवगति उसके प्रधान राजमार्ग हैं। इन्हीं राज-मार्गों के भागरुप अवान्तस्-गलियों के रुप में चार गतियों के अवान्तर भेद हैं । इन गलियों में और राजमार्ग पर रहे असंख्य, अनंत जीव इस नाटक के विभिन्न पात्र हैं, जिनकी विविध चेष्टाएँ नाटक का अभिनय हैं ! जबकि समस्त नाट्य-भूमिरंगभूमि का सूत्र-संचालन, दिग्दर्शन स्वयं मोहराजा करता रहता है ! जिस तरह रंगभूमि पर जन्म का दृश्य हूबहू खडा कर दिया जाता है, मृत्यु का साक्षात् अभिनय किया जाता है, लेकिन वह वास्तविक नहीं होता ! केवल पात्रों के अभिनय कौशल्य का कमाल होता है । दृष्टा स्वयं इस तथ्य को भलिभांति जानते हैं, समझते हैं ! अत: जन्म होने पर प्रसन्न नहीं होते और मृत्यु को लेकर शोक-विह्वल नहीं बनते ! ठीक उसी तरह सृष्टि की रंगभूमि पर जन्म, जरा और मृत्यु के प्रसंग उपस्थित होने पर, ज्ञानीपुरुष कतइ विचलित नहीं होते । क्योंकि वे इस तथ्य से अवगत हैं कि आत्मा कभी जन्म नहीं लेती, नही मृत्यु पाती है । वह सहज ही जन्म-मरण का अभिनय करती है। अतः व्यर्थ ही शोक करने से क्या लाभ ? विकल्पचषकैरात्मा, पीतमोहाऽऽसवो ह्ययम् । भवोच्चतालमुत्ताल-प्रपञ्चमधितिष्ठति ॥४॥५॥
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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