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________________ ४० वह क्षणार्ध में फंस जाता है । जो आत्मा अशुभ- भाव के बन्धन के वशीभूत नहीं होता, मोहराजा उसे अशुभ भाव में फंसाने के लिए सदा प्रयत्नशील रहता है । मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, देशविरति, सर्वविरति, उपशम - समकित चारित्रादि में गतिशील होने के उपरान्त भी यदि जीवात्मा ने आसक्ति की, राग-द्वेष किया तो समझिए मोहजाल उसका शिकार करके ही रहेगी ! उस जाल को छिन्न-भिन्न, नेस्तनाबूद करने के लिए सूक्ष्म मति और युद्ध - कौशल्य की पूर्णरुप से आवश्यकता है । तभी उसका सर्वदृष्टि से उच्चाटन हो सकता है । ज्ञानसार कहने का तात्पर्य यह है कि मोहराजा भले अनेकविध बाह्य - आभ्यन्तर आकर्षण पैदा करे, अपनी जाल फैलाये, जीवात्मा को उसके वशीभूत नहीं होना चाहिए, बल्कि उससे दूर रहना चाहिए । तब मोह का कुछ नहीं चलेगा । बार— बार प्रयत्न कर हार जायेगा । जिस तरह कोई व्यक्ति आकाश को मलिन करने के लिये कीचड उछाले तो आकाश मलिन नहीं होता, ठीक उसी तरह मोह द्वारा उछाले गये कीचड से आत्मा मलिन नहीं होगी, ना ही पाप के अधीन बनेगी ! कहा गया है कि अराग- अद्वेष के कवच को मोह के तीक्ष्ण तीर भी भेदने में पूर्णतया असमर्थ हैं ! पश्यन्नेव परद्रव्य-नाटकं प्रतिपाटकम् । भवचक्रपुरस्थोऽपि, नामूढः परिखिद्यते ॥ ४ ॥४॥ अर्थ : अनादि अनंत कर्म - परिणामरुप राजा की राजधानी - स्वरुप भवचक्र नामक नगर में वास करते हुए भी एकेन्द्रियादि नगर की गली-गली में नित्य खेले जानेवाले परद्रव्य के जन्म- जरा और मृत्युरुपी नाटक को देखती हुई मोहविमुक्त आत्मा दुःखी नहीं होती ! विवेचन : मोहराजा ने भव-नगर की गली-गली में और राजमार्गों पर अपनी औदयिक भाव की मजबूत जाल फैला रखा है और गली-गली में वास करती अनन्त - जीवात्माएँ उसके सुहाने जाल में फँसकर निरन्तर विविध चेष्टाएँ करती रहती हैं । कारण, वे सब मोहराजा के माया - जाल को कतई समझ नहीं
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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