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अमोह
मोह को पराजित करने के लिए परमाराध्य उपाध्यायजी महाराज हमें शस्त्र और मन्त्र-दो शक्तियाँ प्रदान कर रहे हैं । हमें इन दोनों महाशक्तियों को ग्रहण कर मोह पर टूट पड़ना है, आक्रमण करना है। उसके साथ युद्ध के लिए सजग, सन्नद्ध होना है और जब युद्ध ही करना है तो शत्रु के वार भी झेलने होंगे । बल्कि उनके प्रहारों का, आघातों का डटकर सामना करना पड़ेगा । ऐसी स्थिति में शरणागति के लिए कोई स्थान नहीं । उसका एक प्रहार तो हमारे दस प्रहार ! युद्ध में एक ही संकल्प हो, भावना हो : 'अन्तिम विजय हमारा है।'
मनुष्य की जिंदगी ही युद्ध का मेदान है। इसमें कई नरवीर युद्ध खेलकर मोहविजेता बने हैं । तब भला, हम क्यों न बनेंगे? जबकि हमारे पास तो पूज्यउपाध्यायजी द्वारा प्रसादरूप मिले शस्त्र और मन्त्र जैसे दो वरदान हैं।
यो न मुह्यति लग्नेषु भावेष्वौदयिकादिषु । आकाशमिव पङ्केन, नाऽसौ पापेन लिप्यते ॥४॥३॥
अर्थ : जो जीव लगे हुए औदायिकादि भावों में मोहमूढ नहीं होता है वह जीव जिस तरह कीचड से आकाश पोता नहीं जा सकता, ठीक वैसे ही वह पापों से लिप्त नहीं होता है।
विवेचन : मोह की माया का कोई पार नहीं है । जिसे मोह के साथ युद्ध में उतरना है उसे उसकी मायाजाल से भी बचकर रहना होगा । जो उसके मायाजाल को पूरी तरह समझ गया है, जान गया है, वह भूलकर भी उसमें नहीं फँसेगा । शत्रु की मायाजाल एकबार समझ लेने पर भला, उसके प्रति मोह कैसा?
मोहराजा ने औदायिकभाव की मायाजाल समस्त विश्व पर सावधानी के साथ फैला दी है । अज्ञान, असंयम, असिद्धता, छह लेश्याएँ, चार कषाय, तीन वेद, चार गति और मिथ्यात्व, इत्यादि औदयिक भाव के इक्कीस प्रधान अंग हैं । इस तरह क्षायोपशमिक-भाव के सभी अंग जीवात्मा को फंदे में डालनेवाले, वशीभूत करनेवाले नही हैं । लेकिन यदि वह अपने आप में अचेत बेसुध रहे तो वहाँ भी उसके लिए फंदा तैयार ही है ! अत: दान, लाभ, भोगोपभोग, वीर्य की लब्धियाँ मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान, विभंगज्ञानादि में बन्धते देर नही लगती,