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________________ ३८ ज्ञानसार 'शुद्धात्मद्रव्यमेवाहं' 'शुद्धज्ञानं' गुणो मम' । 'नान्योऽहं न ममान्ये' चेत्यहो मोहास्त्रमुल्बणम् ॥४॥२॥ अर्थ : मोह का हनन करनेवाला एक ही अमोघ शस्त्र है और वह है : 'मैं शुद्ध आत्म- द्रव्य हूँ । केवलज्ञान मेरा स्थायी गुण है । मैं उससे अलग नहीं और अन्य पदार्थ मेरे नहीं हैं।' ऐसा चिंतन करना । विवेचन : "मैं धनवान नहीं, सौन्दर्यवान नहीं, पिता नहीं, माता नहीं, मनुष्य नहीं, गुरु नहीं, लघु नहीं, शरीरी नहीं, शक्तिशाली नहीं, सत्ताधारी नहीं, वकील नहीं, डॉक्टर नहीं, अभिनेता नहीं ! तो फिर मैं कोन हूँ ? 'मैं सिर्फ एक शुद्ध आत्मद्रव्य हूँ ।' संसार के धन-धान्यादि मेरे नहीं, माता-पिता मेरे नहीं, पुत्र-पुत्रियाँ मेरे नहीं, सत्ता मेरी नहीं, शक्ति मेरी नहीं, स्वजन मेरे नहीं, रिद्धि-सिद्धियाँ मेरी नहीं ।' तो फिर मेरा क्या है ! 'शुद्ध - ज्ञान केवलज्ञान मेरा है । में उससे अलग नहीं, बल्कि सभी दृष्टि से अभिन्न हूँ ।' यह भावना / विचार मोहपाश को छिन्न-भिन्न करनेवाला अमोघ शस्त्र है, अणुबम है। मतलब यह है कि शुद्ध आत्म- द्रव्य का प्रीतिभाव, आत्म- द्रव्य से अलग पुद्गलास्तिकाय के प्रीतिभाव को तहस-नहस करने में सर्वशक्तिमान है। सभी तरह से समर्थ है। जीवन का उद्देश्य होना चाहिए आत्म-तत्त्व से प्रेम करना और पुद्गल - तत्त्व से कोसों दूर रहना । इसका परिणाम यह होगा कि जीवात्मा में जैसे-जैसे आत्म-तत्त्व का प्रीतिभाव बढता जायेगा उस अनुपात से पुद्गल-प्रीति के बन्धन टूटते जायेंगे। लेकिन उस बात की पूरी तरह से सावधानी बरतनी होगी कि आत्म-तत्त्व से प्रेमभाव बढाते हुए कहीं पुद्गल अथवा उसके गुण के प्रति हमारे मन में प्रीति की भावना रुढ न हो जाएं ! हमें आत्मद्रव्य के साथ प्रेम करना है । अत: सबसे पहले हमारा ध्यान शुद्ध आत्म- द्रव्य पर ही केन्द्रित करना होगा । इसके लिए हमें 'मैं शुद्ध आत्म- द्रव्य हूँ,' की भावना से तरबतर होकर परपर्यायों में निहित 'अहं - मैं' के भाव को सदा के लिए मिटा देना होगा । साथ ही शरीर के अंग- उपांग के रुप-रंग से आकर्षित हो मन्त्रमुग्ध होने की वृत्ति को हमेशा के लिए तिलांजलि देनी होगी ।
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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