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अमोह
३७ जीवात्मा के आन्तस्-चक्षु यों ही बन्ध नहीं हैं, बल्कि उस पर मन्त्र प्रयोग किया हुआ है । आत्मा स्वयं अपने पर ही इस प्रकार का मन्त्र प्रयोग करता है, जो उसे मोहदेवता से विरासत में मिला हुआ है । मन्त्रदान करते समय मोहदेवता ने उसे भली-भांति समझा दिया है कि: 'जब तक तुम इस मन्त्र का प्रयोग करते रहोगे तब तक निर्बाध रूप से स्वर्गसुख का आनन्द लूटते रहोगे ! नानाविध रिद्धिसिद्धियाँ तुम्हारे कदमों में आलोडन करती रहेंगी ।' और बाह्य पौद्गलिक सुख सुविधाओं के लालची जीव को यह बात भा गयी, अन्तर की गहराइयों में उतर गयी ! फलतः उसने अविलम्ब मन्त्र को ग्रहण कर लियाः 'अहं-मम्' और आज वह वन-नगर, घर-बाहर, मस्जिद-मन्दिर, दुकान-उपाश्रय-सर्वत्र इसी महामन्त्र का जाप करता भटक रहा है। आज से नहीं अनादि काल से भटक रहा है । मोह के कारण उसकी दिव्यदृष्टि के द्वार बिल्कुल बन्ध हैं। वह मोक्ष-मार्ग देख नहीं पाता।
इसी तरह भटकता हुआ वह चारित्ररूपी महाराजा के द्वार पहुँच जाता है। विनीत भाव से उनकी शरण ग्रहण कर अपने तन-मन के कष्ट, दुःख दूर करने का अनुनय करता है।
"यदि तुम्हें अपने तन-मन के समस्त दुःख, यातनाओं से मुक्ति पानी हो तो एक काम करना होगा !"
प्रभु “कहिए !"
मोह द्वारा प्रदत्त मन्त्र 'अहं-मम्'-मैं और मेरा को सदा के लिए तजना होगा, भुला देना पड़ेगा।
"लेकिन यह भला कैसे सम्भव है ? अनादि काल से अहर्निश मैं इस मन्त्र का जाप करता आया हूँ, वह मेरे रोम-रोम में समाया हुआ है । इसे भूलना मेरे बलबूते की बात नहीं है । लाख चाहने पर भी मैं भूल नहीं सकता ।"
"कोई बात नहीं । लो यह दूसरा मन्त्र । आज से हमेशा इस का जाप करते रहो" और चारित्र-महाराज ने उसे दूसरा मन्त्र दिया: "नाहं न मम् (मैं नहीं.... मेरा नहीं)