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________________ ४. अमोह तन और मन स्थिर बन, आत्मभाव में पूर्णरूप से लयलीन बन गये तो समझ लो मोह का नाश... मोह की मृत्यु निःसंदिग्ध है। मन-वचन और काया की स्थिरता में से अ-मोह (निर्मोही-वृत्ति) सहज पैदा होता है ! अतः मोह के मायावी आक्रमणों की तिलमात्र भी चिंता न करो ! - प्रस्तुत अष्टक में से तुम्हें निर्मोही बनने का अद्भुत उपाय मिलेगा और तम्हारी प्रसन्नता की अवधि न रहेगी । तुम्हारा दिल मारे खुशी के बाग-बाग हो उठेगा। इसमें तुम्हें अमूढ बन, सिर्फ ज्ञाता और द्रष्टा बनकर, जिंदगी बसर करने का, अपूर्व आनन्द प्राप्त करने का एक नया अद्भुत मार्ग दिखायी देगा ! अहं-ममेति मन्त्रोऽयं मोहस्य जगदान्थ्यकृत् । अयमेव ही नज्यूर्वः प्रतिमन्त्रोऽपि मोहजित् ॥४॥१॥ अर्थ : मोहराजा का मूलमन्त्र है : 'मैं और मेरा । जो सारे जगत को अन्धा अज्ञानी बनानेवाला है। जबकि इसका प्रतिरोधक मन्त्र भी है, जो मोह पर विजय हासिल करानेवाला है ! विवेचन : जो अन्धा है, उसे पथभ्रष्ट होते-भटकते देर नहीं लगती । उसमें जो बाह्यरूप से अन्धा है वह अभ्यास के बल पर प्रयत्न करने पर सीधी राह चलता है, बिना किसी रोक-टोक के गन्तव्य स्थान पर पहुँच जाता है । लेकिन जिस के आन्तर-चक्षुओं पर अन्धेपन की पर्ते जम गयी हैं, वह लाख कोशिश के बावजूद भी सन्मार्ग पर चल नहीं सकता ! जैसे सांप हमेशा टेढ़ामेढ़ा ही चलता है । सीधा चलना उसके स्वभाव में ही नहीं होता ।
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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