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________________ स्थिरता ३५ यही सिद्ध भगवन्तों का चारित्र है। सिद्धों में क्रियात्मक चारित्र का पूर्णतया अभाव होता है । क्योंकि क्रियात्मक चारित्र में आत्मप्रदेश अस्थिर होते हैं। जबकि सिद्ध भगवन्तों का एक भी आत्मप्रदेश अस्थिर नहीं, अपितु पूर्ण रूप से स्थिर होता जिस आत्मा का अन्तिम लक्ष्य 'सिद्ध' बनना है, उसे अपनी समग्र साधना का केन्द्रस्थान 'स्थिरता' को, 'स्थिर वृत्ति' को ही बनाना होगा । उसकी पूर्व तैयारी के लिए तीन योगों को स्थिर करने का भरसक प्रयास करना पड़ेगा। उसमें भी सर्व प्रथम काया, वाणी और मन को पाप-प्रवृत्तियों से मुक्त कर और उसकी अस्थिरता को दूर कर उन्हें पुण्यप्रवृत्तियों की ओर गतिशील बनाना होगा। अलबत्ता, पुण्यप्रवृत्ति में भी स्वाभाविक आत्मस्वरूप की रमणता रूपी स्थिरता का अभाव ही है। यहाँ भी इसे पाने के लिये काया के माध्यम से, पुण्यकर्मोपार्जन करने के लिये दौडधूप, वाणी के माध्यम से उपदेशदान और मन से पुण्यवृत्तियों के मनोरथ और योजनायें जारी रखनी पड़ती हैं । इसके बावजूद भी आत्मप्रदेश सदा अस्थिर होते हैं । फिर भी यह सब अनिवार्य है। पापक्रियाओं से मुक्ति पाने हेतु पुण्यक्रियायें आवश्यक हैं । 'पुण्यप्रवृत्ति में भी अस्थिरता का भाव कायम है, बाह्य भाव का समावेश है । अतः वह त्याज्य है।' यदि इस विचार को मन में बनाये रखोगे तो अनादि काल से पापवृत्ति में सराबोर बनी आत्मा क्या चुटकी बजाते ही पापप्रवृत्ति को त्याग देगी? क्या वह आत्मस्वरूप की रमणता में अहर्निश खो जाएगी ? उससे तादात्म्य साध लेगी ? इसका परिणाम कल्पना से विपरीत ही यह आएगा कि 'पुण्य प्रवृत्ति में भी अस्थिरता है। अत: वह पुण्यप्रवृत्ति से मुँह मोड लेगा। दुबारा उसकी ओर भूलकर भी नहीं देखेगा और सिर्फ पाप-प्रवृत्तियों में आकण्ठ डूब जाएगा! अतः साधक को चाहिए कि वह पाप-प्रवृत्तियों से मुक्त होकर अपने मन को सदा पुण्य-प्रवृत्तियों में पिरोये रख, विशुद्ध आत्मस्वरूप में रमणता रुपी स्थिरता का अपना अंतिम ध्येय-बिन्दु मानकर अपना जीवन व्यतीत करे ।
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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