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________________ ३४ ज्ञानसार पतन होते देर नहीं लगेगी । इस जगत में जो भी शुभ विचार एवं शुद्ध आचरण से च्युत हुआ है, उसके पीछे इसी पौद्गलिक सुख की स्पृहा से पैदा हुई अस्थिरता का ही हाथ रहा है । इसके मूल में पौद्गलिक सुखों की स्पृहा ही रही है। 1 एक समय की बात है । युवक मुनि अरणिक आहार - ग्रहण हेतु बाहर निकले । मध्याह्न का सूर्य तप रहा था । मारे गर्मी के लोग बाग व्याकुल हो रहे थे। युवक मुनि भी प्रखर ताप से बच नहीं पाये । उनका मन उद्विग्न और उदास था । तभी सामने रही प्रशस्त अट्टालिका के गवाक्ष में खड़ी षोडशी पर उनकी नजर पड़ी। युवती की बाँकी चितवन और दृष्टिक्षेप से वे घायल हो गये । उनके संयम जीवन में विक्षेप पड़ गया। वर्षों की साधाना खाक में मिल गयी । संयमसाधना को शुभ विचारमाला छिन्न-भिन्न हो गयी । अस्थिरता ने अपना रंग दिखाया | । पुंडरिक नरेश की पौषघशाला में औषधोपचार हेतु ठहरे कंडरिक मुनि चित्त प्रदेश पर विषयवासना की आधी क्या उठी ? उनका त्यागी जीवन रसातल में चला गया । शिवपुरी का साधक दुर्गति के द्वार पर भिक्षुक बन भटक गया । क्या तुम्हें ऐसा अनुभव नहीं हुआ अब तक ? परमपिता परमात्मा की आराधना में तुम आकण्ठ डूबे हुए हो ? तुम्हारा तन-मन और रोम-रोम प्रभुभक्ति में ओतप्रोत हो उठा हो, वहीं किसी नवयौवना नारी पर अचानक तुम्हारी नज़र पड जाए... वह तुम्हारे रोम-रोम में बस जाए... । तब क्या होता है ? अस्थिरता का उद्गम और प्रभु-भक्ति में विक्षेप ! रंग में भंग! शुभविचारधारा चूर्ण - विचूर्ण ! चारित्रं स्थिरतारुपमतः सिद्धेष्वपीष्यते ॥ यतन्तां यतयोऽवश्यमस्या एव प्रसिद्धये ॥ ३॥८ ॥ अर्थ : योग की स्थिरता ही चारित्र है और इसी हेतु से सिद्धि के बारे में भी कहा गया है । अतः हे यतिजनों, योगियों ! इसी स्थिरता की परिपूर्ण सिद्धि के लिये समुचित प्रयत्न करें। (सदा प्रयत्नशील रहें) विवेचन : असंख्य आत्मप्रदेशों की स्थिरता... सूक्ष्म स्पन्दन भी नहीं...।
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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