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स्थिरता
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भावना है रत्नदीप !
'अतः इसके लिये मैं पर पदार्थों की आसक्ति से कोसों दूर रहुँ । बाह्य जगतको देखना, सुनना और भोगना... जैसी क्रियाओं को पूरी तरह से त्याग दूं। देव, गुरु और धर्माचरण में अपने आप को लीन कर दूँ । तन-मन से धर्मश्रवण और धर्मोपासना में खो जाऊँ...।' यह रत्नदीप की प्रखर ज्योति है । इससे मनोमन्दिर देदीप्यमान हो उठता है और विकल्प-आश्रवादि का अंधियारा छिन्नभिन्न हो जाता है।
उदीरयिष्यसि स्वान्तादस्थैर्य पवनं यदि । समाधेर्धर्ममेघस्य घटां विघटयिष्यसि ॥३॥७॥
अर्थ : यदि अन्त:करण से अस्थिरता रूपी आँधी पैदा करोगे, तो निःसन्देह धर्ममेघ-समाधि की श्रेणी को बिखेर दोगे।
विवेचन : जिस तरह सनसनाती हवा के झोंके और आकाश में उठी भयंकर आँधी मेघघटाओं को छिन्न-भिन्न कर देती है, बिखेर देती है, ठीक उसी तरह मानसिक अस्थिरता / चंचलता भी समाधी-रूपी धर्ममेघ की घटाओं को बिखेर देती है। प्रकट होनेवाले केवलज्ञान को तितर-बितर कर देती है। 'धर्ममेघ' समाधि (योग) आत्मा की ऐसी श्रेष्ठ-सर्वोच्च दशा अवस्था को कहा जाता है, जहाँ चित्त की सभी भावनाएँ, वृत्तियाँ शान्त बन जाती हैं । तब वहाँ किसी शुभ विचार अथवा अशुभ विचार के लिए कोई स्थान नहीं होता । साथ ही ऐसी कोई चंचलता और अस्थिरता पैदा ही नहीं होती कि जिसके कारण केवलज्ञान प्रकट न हो सके।
यह तो तुम भली भाँति जानते ही हो कि मन के पौद्गलिक पदार्थों में फँसने मात्र से ही आत्मस्वरूप सम्बन्धित शुभ विचार पैदा होने से रहे ! दान, शील, परमार्थ, परोपकारादि आत्मकल्याणकारक शुभ विचार भी टिक नहीं सकते। इससे एक कदम आगे चलकर यदि हम यह विधान करें तो अतिशयोक्ति न होगी कि, 'जहाँ कोई शुभ विचार काम कर रहा हो, वहाँ पौद्गलिक सुख की स्पृहा अगर बीच में आ जाए तो सब कुछ मटियामेट हो जाता है। जीवात्मा का