SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 70
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अमोह जो जीवात्माएँ निरंतर बाह्य पौद्गलिक सुख में ही ओत-प्रोत हैं, निमग्न हैं, उनके समक्ष स्वाभाविक सुख के अनुभव की बात हास्यास्पद बन जाती है। ऐसे समय आत्मिक सुख की अनुभवी आत्मा, पौद्गलिक सुख को 'वास्तविक सुख' के रूप में उसका वर्णन करने में असमर्थ होता है। क्योंकि ज्ञानीपुरुष की दृष्टि में पौद्गलिक सुख, कर्मोदय से उत्पन्न रिद्धि-सिद्धि और सुख-संपदा मात्र दुःख ही दुःख, अनंत पीडाओं का केन्द्र-स्थान जो है । ... तब कुछ महत्त्वपूर्ण बातों का पता. लगता है, जो जीवात्मा के लिए महत्त्वपूर्ण मार्गदर्शन हैं : • मोहनीय कर्म का क्षयोपशम किये बिना आत्मा के स्वाभाविक सुख का अनुभव मिलना असम्भव है। ऐसे स्वाभाविक सुख का अनुभवी वैभाविक सुख में भी दुःख का ही दर्शन करता है, उसे वह 'सुख' नहीं लगता । बाह्य जगत के सुख में सरोबार जीव आत्मसुख की बात समझने से इन्कार करे, तब भी उस पर गुस्सा करने के बजाय मन में करुणा भाव ही रखें। आत्मसुख को अनुभवी जीवात्मा का सम्बन्ध बाह्य सुखों में खोये जीव के साथ कदापि टीक नहीं सकता । यश्चिर्पणविन्यस्त-समस्ताऽऽचारचारुधीः । क्व नाम स परद्रव्ये-ऽनुपयोगिनि मुह्यति ? ॥४॥८॥ अर्थ : जो ज्ञानरूपी दर्पण में प्रतिबिंबित समस्त ज्ञानादि पाँच आचार से युक्त सुन्दर बुद्धिमान है-ऐसा योगी, भला, अनुपयोगी ऐसे परद्रव्य में क्यों मोहमूढ़ बनेगा? विवेचन : दर्पण में अपने समस्त अवयवों की सुन्दरता को निहार मनुष्य अपने आप में आनन्दित होकर झुम उठता है और उसे अधिक सुन्दर एवं आकर्षक बनाने के लिए सदा प्रवृत्तिमय रहता है । उसका सुख लूटने, सुन्दरता में अधिकाधिक वृद्धि करने हेतु बाजार में जाता है, बाह्य जगत में बावरा बन प्रायः भटकता रहता है और समय समय मोहित हो उठता है ।
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy