SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 575
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५५० ज्ञानसार सात पिण्डैषणा में से पहली दो को छोड़कर बाकी की पाँच पिण्डैषणा में भिक्षा ग्रहण करे। उसमें भी विविध प्रकार के अभिग्रह धारण करे । अलेपकृत आहार ग्रहण करे, अन्तप्रान्त और रूक्ष आहार ग्रहण करे । उपधिपरिकर्म में वस्त्र और पात्र की चार प्रतिमाओं में से प्रथम दो त्याग दे और अंतिम दो ग्रहण करे। 'उत्कुटुक' आसन का अभ्यास करे, क्योंकि जिनकल्प में 'औपग्रहिक' उपधि नहीं रखी जाती, इसलिये बैठने का आसन नहीं होता और साधु आसन बिछाये बिना सीधा भूमि-परिभोग नहीं कर सकता, इससे उत्कुटकु (उभड़क) आसन से ही जिनकल्पिक रहता है। अतः इसका अभ्यास पहले कर लेना चाहिए। जिनकल्प-स्वीकार : • प्रशस्त द्रव्य-क्षेत्र काल और भाव देखकर, संघ को इकट्ठाकर (अगर वहाँ संघ न हो तो स्व-गण के साधुओं को इकट्ठाकर) क्षमापना करे । परमात्मा तीर्थंकर देव के सान्निध्य में अथवा तीर्थंकर न हो तो गणधर के सान्निध्य में क्षमापना करे । जइ किं चि पमाएणं न सुटु भे वट्टियं मइ पुट्वि । तं भे खामेमि अहं निस्सल्लो निक्कसाओ अ॥ 'निशल्य और निष्कषाय बनकर मैं, पूर्व के प्रमाद से जो कोई तुम्हारे प्रति दुष्ट कार्य किया हो, उसकी क्षमा माँगता हूँ ।' अन्य साधुओं से आनन्दाश्रु बहाते हुए भूमि पर मस्तक लगाकर क्षमापना करे। साधु को दस प्रकार की समाचारी में से जिनकल्पी को (१) आवश्यिकी, (२) नैषेधिकी, (३) मिथ्याकार, (४) आपृच्छा और (५) गृहस्थविषयक उपसंपत् ये पाँच प्रकार की समाचारी ही होती है। जिनकल्प स्वीकार करनेवाले साधु को नववें पूर्व की तीसरी वस्तु तक का ज्ञान तो अवश्य होना ही चाहिए । उत्कृष्ट कुछ न्यून दस पूर्व । • पहला संघयण (वज्रऋषभनाराच) होना चाहिये । • बिना दीनता के उपसर्ग सहन करे। १. सात पिण्डैषणा : 'असंसट्ठा संसट्ठा उद्धड़ा, अप्पलेवा, उग्गमहिआ, पग्गहिया उज्झियधम्मेति । -आचारांगसूत्रे २ श्रुतस्कंधे
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy