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________________ परिशिष्ट : जिनकल्प-स्थविरकल्प ५४९ सूत्र भावना : काल का प्रमाण जानने के लिये वह ऐसा श्रुताभ्यास करे कि खुद के नाम जैसा अभ्यास हो जाय । सूत्रार्थ के परिशीलन द्वारा, वह अन्य संयमानुष्ठानों के प्रारम्भकाल तथा समाप्तिकाल को जान ले । दिन और रात के समय को जान ले । कब कौन सा प्रहर और घड़ी चल रही है, वह जान ले। आवश्यक, भिक्षा, विहार... आदि का समय छाया नापे बिना जान ले । सूत्र भावना से चित्त की एकाग्रता, महान् निर्जरा वगैरह अनेक गुणों को वह सिद्ध करता है। 'सुयभाबणाए नाणं दंसणं तवसंजमं च परिणमइ' —बृहत्कल्प० गाथा १३४४ एकत्व भावना : संसारवास का ममत्व तो मुनि पहले ही छोड देता है, परन्तु साधु जीवन में आचार्यादि का ममत्व हो जाता है । अतः जिनकल्प की तैयारी करनेवाला. महात्मा आचार्यादि के साथ भी सस्निग्ध अवलोकन, आलाप, परस्पर गोचरीपानी का आदानप्रदान, सूत्रार्थ के लिए प्रतिपृच्छा, हास्य, वार्तालाप वगैरह त्याग दै। आहार, उपधि और शरीर का ममत्व भी न करे । इस प्रकार एकत्व भावना द्वारा ऐसा निर्मोही बन जाय कि जिनकल्प स्वीकार करने के बाद स्वजनों का वध होता हुआ देखकर भी क्षोभ प्राप्त न करे । बल भावना : • मनोबल से स्नेहजनित राग और गुणबहुमानजनित राग, दोनों को त्याग दे। • धृतिबल से आत्मा को सम्यग्भावित करे । इस प्रकार महान् सात्विक, धैर्यसम्पन्न, औत्सुक्यरहित, निष्प्रकंपित बनकर परिषह-उपसर्ग को जीतकर वह अपनी प्रतिज्ञा को पूर्ण करता है। 'सर्व सत्वे प्रतिष्ठितम्'सब सिद्धि सत्व से मिलती है । ___ इस प्रकार पाँच भावनाओं से आत्मा को भावित करके जिन कल्पिक के समान बनकर गच्छ में ही रहते हुए द्विविध परिकर्म करे । १. आहार परिकर्म २. उपधि परिकर्म
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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