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(१) तपो भावना
(२) सत्त्व भावना
(३) सूत्र भावना
(४) एकत्व भावना
(५) बल भावना
न ले ।
तप भावना :
धारण किया हुआ तप जहाँ तक स्वभावभूत न हो जाय वहाँ तक उसका अभ्यास न छोड़े ।
एक-एक तप वहाँ तक करे कि जिससे विहित अनुष्ठान की हानि न हो । शुद्ध प्रासुक आहार नहीं मिले तो छः महिने तक भूखा रहे, परन्तु दोषित आहार
ज्ञानसार
इस प्रकार तप से वह अल्पाहारी बने, इन्द्रियों को स्पर्शादि विषयों से दूर रखे, मधुर आहार में निःसंग बने, इन्द्रियविजेता बने ।
सत्त्व भावना :
इस भावना में मुनि 'पाँच प्रतिमाओं' का पालन करें ।
जनशून्य... मलिन... तथा अन्धकारपूर्ण उपाश्रय में निद्रा का त्यागकर कायोत्सर्ग-ध्यान में खड़ा रहकर भय को जीतकर निर्भय बने । उपाश्रय में फिरनेवाले चूहे, बिल्ली आदि द्वारा होनेवाले उपसर्गों से भय प्राप्त न करे, भाग न जाए ।
उपाश्रय के बाहर रात्रि के समय कायोत्सर्गध्यान में खड़ा रहकर चूहे, बिल्ली, कुत्ते तथा चोरादि के भय को जीते ।
जहाँ चार मार्ग मिलते हों, वहाँ जाकर रात्रि के समय ध्यान में रहे । पशु, चोरादि के भय को जीते ।
खण्डहर .... शून्यघर में जाकर रात्रि के समय ध्यान में स्थिर रहकर उपद्रवों से डरे नहीं और निर्भय रहे ।
श्मशान में जाकर कायोत्सर्ग ध्यान में खड़ा रहे और सविशेष भयों को जीते।
इस प्रकार सत्त्व भावना से अभ्यस्त होने से दिन में या रात में, देव-दानव से भी नहीं डरे और जिनकल्प का निर्भयता से वहन करे ।