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परिशिष्ट : जिनकल्प-स्थविरकल्प
५४७ पुद्गलराशेः कर्ता परिगृहीतस्यात्मप्रदेशेष्ववस्थानं स्थितिः ।' (तत्त्वार्थ-टीकायाम्)
(३) शुभाशुभ वेदनीयकर्म के बन्ध के समय ही रसविशेष बन्धता है, जिसका विपाक नामकर्म के गत्यादि स्थानों में रहा हुआ जीव अनुभव करता है।
(४) कर्मस्कंधो को आत्मा के सर्व प्रदेशों से योगविशेष से (मन-वचन-काया के) ग्रहण करना, वह प्रदेशबन्ध होता है। अर्थात् कर्मपुद्गलों का द्रव्यपरिणाम प्रदेशबन्ध में होता है । 'तस्य कर्तुः स्वप्रदेशेषु कर्मपुद्गलद्रव्यपरिमाणनिरुपणं प्रदेशबन्धः ।' (तत्त्वार्थ-टीकायाम्)
इस प्रकार संक्षेप में कर्म का स्वरुप और कर्मबन्ध का स्वरूप बताया गया है । विशेष जिज्ञासु को 'कर्मग्रन्थ', 'कर्म प्रकृति', 'तत्त्वार्थ सूत्र' आदि ग्रन्थों का अवलोकन करना चाहिए ।
१५. जिनकल्प-स्थविरकल्प
श्री 'बृहत्कल्पसूत्र' आदि ग्रन्थों में विस्तार से जिनकल्प तथा स्थविर कल्प का वर्णन देखने में आता है।
ये दोनों कल्प (आचार) साधु-पुरुषों के लिये हैं । गृहस्थों के लिये नहीं। दोनों कल्पों का प्रतिपादन श्री तीर्थंकर परमात्मा ने किया है। अर्थात् जिनकल्प का साधुजीवन और स्थविरकल्प का साधुजीवन दोनों प्रकार के जीवन परमात्मा महावीरदेव ने बताए हैं। दोनों प्रकार के जीवन से मोक्षमार्ग की आराधना हो सकती है। दोनों जीवों के बीच का अन्तर मुख्यतया एक है। जिनकल्प का साधुजीवन मात्र उत्सर्गमार्ग का अवलम्बन लेता है । स्थविरकल्प का साधुजीवन उत्सर्ग मार्ग और अपवादमार्गदोनों का अवलम्बन लेता है । अर्थात् जिनकल्पी मुनि अपवाद मार्ग का अनुसरण नहीं करते । स्थविरकल्पी मुनि अनुसरण करते हैं। अपवादमार्ग का अनुसरण करनेवाले मुनि भी आराधक हैं । तात्पर्य यह कि मोक्षमार्ग की आराधना के लिए मुख्यरूप से ये दो प्रकार के ही जीवन हैं।
प्रस्तुत में जिनकल्प का स्वरूप श्री बृहत्कल्पसूत्र ग्रन्थ के आधार पर दिया जाता है : जिनकल्प-स्वीकार की पूर्व तैयारी
___ जिनकल्प स्वीकार करनेवाला मुनि अपनी आत्मा को इस प्रकार तैयार करे। तैयारी में पाँच प्रकार की भावनाओं से आत्मा को भावित करे ।