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परिशिष्ट : जिनकल्प - स्थविरकल्प
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अगर रोग- आतंक पैदा हों तो उसको सहन करे । औषधादि चिकित्सा न करावे ।
• लोच, आतापना, तपश्चर्या वगैरह की वेदना सहन करे ।
जिनकल्पी अकेले ही रहे और विचरे ।
'अनापात - असंलोक' स्थंडिल भूमि पर मलोत्सर्ग करे । जल से शुद्ध न करे । जलशुद्धि की जरूरत ही नहीं पड़ती है । मल से बाह्य भाग लिप्त ही नहीं होता । जिस स्थान में रहे वहाँ चूहे वगैरह का बिल हो तो बन्ध न करे । वसति - स्थान को खाते हुए पशुओं को न रोके । द्वार के किंवाड़ बन्ध न करे । सांकल नहीं गावे ।
स्थान ( उपाश्रयादि) का मालिक अगर किसी प्रकार की शर्त करके उतरने के लिये स्थान देता हो तो उस स्थान में नहीं रहे । किसीको सूक्ष्म भी अप्रीति हो जाय तो उस स्थान का त्याग कर दे ।
जिस स्थान पर बलि चढ़ती हो, दीपक जलाने में आते हों, अंगार - ज्वालादि का प्रकाश पड़ता हो अथवा उस स्थान का मालिक कोई काम बताता हो, उस स्थान में जिनकल्पिक न रहे ।
• तीसरी पोरसी में भिक्षाचर्या करे । अभिग्रह धारण करे ।
• भिक्षा अलेपकृत ले : मूंग- चने... वगैरह ।
जिस क्षेत्र (गाँव) में रहे, उसके छः विभाग करे । प्रतिदिन एक-एक विभाग में भिक्षा के लिए जावे । उससे आधाकर्मी दोष वगैरह नहीं लगते ।
एक बस्ती में अधिक से अधिक सात जिनकल्पिक रहें । परन्तु परस्पर सम्भाषण न करें। एक दूसरे की भिक्षा की गली का त्याग करें ।
जिनकल्प स्वीकार करनेवाले का जन्म कर्मभूमि में होना चाहिये । देवादि द्वारा संहरण होने पर अकर्मभूमि में भी हो सकता है ।
• अवसर्पिणी में तीसरे चौथे आरे मे जन्मा हो ।
• सामायिक - छेदोपस्थानीय चारित्र में रहा हुआ मुनि जिनकल्प स्वीकारकर सकता है।
• महाविदेह क्षेत्र में सामायिक - चारित्र में रहा हुआ स्वीकार करता है ।
• परमात्मा धर्मतीर्थ की स्थापना करे, उसके बाद ही जिनकल्प स्वीकार करे ।
• जिनकल्प स्वीकार करते समय कम से कम उम्र २९ वर्ष की होनी चाहिये । साधुता